ये वो इतिहास है जिसे आज तक आप को कभी बताया नहीं गया था. उस कलम का दोष है ये जिसने नीलाम मन से और बिकी स्याही से अंग्रेज अफसरों के नामों के आगे आज तक सर लगाया है. और देश के क्रांतिकारियों को अपराधी तक लिखा स्वतंत्र भारत में इतना ही नहीं उन्होंने देश को ये जानने ही नही दिया की उनके लिए सच्चा बलिदान किस ने दिया और कब दिया है. यह देश को अनंत काल तक पीड़ा पहुंचाने वाला धोखा है. आज 1857 की क्रांति के नायक और वीर सपूत पाण्डेय गणपत राय जी को उनके बलिदान दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनका गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है.
वीर सपूत पाण्डेय गणपत राय जी का जन्म 17 जनवरी, 1809 को भौंरो, लोहरदगा जिला , बिहार (अब झारखंड का एक हिस्सा ) में हुआ था. पाण्डेय गणपत राय जी का पिता का रामकिशुन राय श्रीवास्तव जा और माता सुमित्रा देवी थीं. उनके चाचा सदाशिव राय श्रीवास्तव जी नागवंशी महाराजा जगन्नाथ शाह देव जी के दीवान थे. उनके चाचा की मृत्यु के बाद महाराजा ने उनकी योग्यता देखकर उन्हें दीवान नियुक्त कर दिया था.
पाण्डेय गणपत राय जी भौंरा के जमींदार थे और छोटा नागपुर के महाराजा के दीवान के रूप में कार्यरत थे, जो नागवंशी वंश के थे. उन्हें शुरू में इस क्षेत्र में ब्रिटिश उपस्थिति पर संदेह था और उनका मानना था कि वे उनके काम में हस्तक्षेप कर रहे हैं. गणपत राय जी अंततः ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरोधी हो गए और उन्होंने महाराजा जगननाथ शाहदेव जी को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने के लिए मनाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए. ब्रिटिश अधिकारियों के साथ काम करने से इनकार करने के कारण उन्हें उनकी भूमिका से बर्खास्त कर दिया गया और जवाब में उन्होंने बदला लेने में मदद करने के लिए समान विचारधारा वाले लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया.
जैसे ही विद्रोह उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गया था. उसी दौरान गणपत राय जी और विश्वनाथ शाहदेव दोनों ने नेतृत्व संभालने का फैसला किया और गणपत राय जी को कमांडर-इन-चीफ नामित किया गया थी. उन्होंने करीब 1,100 लोगों की एक सेना इकट्ठी की थी. वे रामगढ़ से विद्रोही सिपाहियों को भर्ती करने में कामयाब रहे और इस क्षेत्र को अराजकता की स्थिति में डाल दिया, जिससे कई ब्रिटिश अधिकारी क्षेत्र से भाग गए ते.
उनका अंतिम लक्ष्य पलामू जिले से होकर आगे बढ़ना और आरा पहुंचना था, जहां वे उत्तरी बिहार में विद्रोही ताकतों के नेता कुंवर सिंह के साथ अपनी सेना में शामिल हो जाते थे. उनकी अधिकांश प्रारंभिक सफलता उस क्षेत्र के भूभाग के कारण थी जो मुख्य रूप से जंगली और पहाड़ी था जिससे विद्रोही आसानी से बच सकते थे. इनमें से एक संघर्ष बाद में चतरा की लड़ाई के रूप में जाना गया, जिसमें सिख सिपाहियों की सहायता से ब्रिटिश सैनिकों ने चतरा गांव में विद्रोहियों को घेर लिया था, जिसमें प्रत्येक पक्ष को भारी नुकसान हुआ था. इससे पहले कि अंग्रेजों ने गांव पर हमला किया और कब्जा कर लिया था.
स्थानीय जमींदारों और अंग्रेजों दोनों के साथ कई झड़पों और लड़ाइयों के बाद, अधिकारी एक मजबूत खुफिया नेटवर्क बनाने में कामयाब रहे और पाण्डेय गणपत राय जी मार्च 1858 में पकड़ लिया गया और फिर उसी वर्ष 21 अप्रैल को फांसी दे दी गई थी. आज 1857 की क्रांति के नायक और वीर सपूत पाण्डेय गणपत राय जी को उनके बलिदान दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनका गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है.