कीर्तनकार पिता के सैनिक बनने की इच्छा रखने वाले तीन क्रांतिकारी पुत्रों की बलिदान गाथा।
सुल्तानी सल्तनतों और अत्याचारी अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता युद्ध की राजधानी पुणे एवं कई विद्वानों और बलिदानियों की जननी इस महाराष्ट्र ने वैसे तो कई वीर रत्न दिए, परंतु स्वतंत्रता की संघर्ष गाथा का उल्लेख अधूरा रहेगा अगर चापेकर बंधुओ का उल्लेख नहीं किया जाएगा। उनको गरम दल के नेता एवं पंजाब के शेर लाला लाजपत राय ”सशत्र क्रांति के जनक कहते थे”।
इस क्षेत्र के दमन के लिए अगणित अत्याचार और षड्यंत्र हुए परंतु 1897 में प्लेग बीमारी के बहाने उनकी सहनशीलता की सीमाओं को लांघ दिया गया। प्लेग के संक्रमण को रोकने के बहाने, उसके रोगियों को खोजने के लिए अंग्रेज जूतों के साथ घरों, रसोई व देवस्थानों में घुसते थे। प्लेग की पहचान जांघों में बनी गांठ से होती थी, इस लिए लोगों को सम्पूर्ण निर्वस्त्र किया जाता था, जिसमें महिलाओं के साथ भी डॉक्टर या नर्स के बजाए पुरुष पुलिस वाले ही जांघ में हाथ डाल कर जांच करते थे। उस बहाने कई बलात्कार भी किए गए। एक बार तो घर में अंधेरे का बहाना बना कर 100 से ज़्यादा महिलाओं को भरी सड़क पर खुलेआम संपूर्ण निर्वस्त्र होने को कहा गया। इससे छुटकारा पाने के लिए और इज्जत को बचाने के लिए शनिपार स्थान पर 102 महिलाओं ने पत्थरों पर सर पटक पटक कर प्राणों का त्याग किया था। पुणेकरों का मनोबल तोड़ने के लिए यह सिलसिला लम्बा चलने वाल था। इसके विरोध में लोकमान्य तिलक जी की अपील पर चापेकर बंधु आगे आए, जो कीर्तनकार पिता के सैनिक बनाने की इच्छा रखने वाले युवा थे। उन्होंने 300 युवाओं का समूह बनाया हुआ था। उन्होंने इन अत्याचारों के जिम्मेदार फ़िरंगी अधिकारी रैंड का प्रतिशोध लेना के निर्णय लिया। परंतु सीधे हमला करने के बजाय वातावरण बनाने के लिए पहले दर्जनों पत्र लिखे, मुंबई में रानी विक्टोरिया के पुतले को डामर (तारकोल) से पोत दिया। फिरंगियों की गोरी रानी का पुतला अफ्रीकी काली रानी की तरह किया। फिर भी अंग्रेजों ने अत्याचार बंद करने के बजाय लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने का तय किया। तब रैंड का वध करने के लिए रानी की 60 वीं वर्षगांठ के दिन के मुहूर्त को निश्चित किया गया।
22 जून 1897 को पुणे के "गवर्नमेंट हाउस' में चोरों की महारानी विक्टोरिया की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनाई जाने वाली थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैंड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। रैंड की बग्गी के पीछे वासुदेव ने पीछा करना था, उसके लिए उसने आठ दिन अभ्यास किया था। अपने पैरों की आवाज सुनाई नहीं दे, इसके लिए घोड़े के पैरों की आवाजों के साथ और उसी गति से चलने और दौड़ने की प्रैक्टिस से वह आत्मविश्वास से परिपूर्ण थे। बंदूक थी, फिर भी दो तलवारें साथ में रखी थीं, क्योंकि वह यह मौक़ा चूकना नहीं चाहते थे। एक दूसरे को इशारा करने के लिए “गोंध्या आला रे” शब्द का कोड तय हुआ। तय समयानुसार सभी फिरंगी अधिकारी रात के बारह बजे कार्यक्रम से निकले। वासुदेव पीछा कर रहा था, अन्य दोनों भई अपनी-अपनी पोजिशन पर थे। बग्गी आगे व वासुदेव पीछे चल रहा था। उसी दिन उसकी गर्भवती पत्नी की गोद भराई चल रही थी। अगले माह वह पिता बनाने वाला था, परंतु यह सोच कर उसके कदमों की गति कम नहीं हुई। बड़े भाई दामोदर की पत्नी व 6 वर्ष की बेटी, दूसरे भई बाळकृष्ण की पत्नी व 2 वर्ष का बेटा, माता पिता के साथ इस परिवार का क्या होगा, इस प्रश्न को मन में आने दिए बिना वह आगे बढ़ रहे थे। उनको पता था कि वह उनसे टकराने जा रहे हैं जिनके राज्य पर सूरज अस्त नहीं होता, परंतु उस पर आक्रमण करने का संकल्प था। बग्गी आगे चलते चलते गणेश खिंड इस निर्धारित स्थान पर पहुँची। “गोंध्या आला रे” की आवाज़ आई और वासुदेव ने हमला बोल दिया। गोलियों के चलने के बाद पुनः “गोंध्या आला रे” की अनपेक्षित आवाज आई। दामोदर समझ गया था कि किसी और फिरंगी को मारा गया है। वह अपने पास की पिस्टल के साथ रैंड की बग्गी पर चढ़ गया और रैंड की कनपटी पर बंदूक रख कर गोलियां दाग दीं। रैंड मारा गया था। सभी वहां से सुरक्षित भागने में सफल भी हुए। मिशन पूर्ण हुआ।
परंतु समूची अंग्रेज सत्ता हिल गई। कुछ भी कर के सख्त संदेश देने के लिए खोज प्रारंभ हुई, परंतु कोई सबूत छोड़ा ही नहीं था। अंग्रेजों ने 20 हज़ार (आज के मुल्क में 200 करोड़) का इनाम उनको पकड़वाने वाले के लिए घोषित किया था, जो आज भी किसी के सिर पर घोषित सबसे बड़ा इनाम है।
तब चापेकर बंधुओ के 300 युवाओं के समूह के 'गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंन्द्र द्रविड़', इन दोनों ने पुरस्कार के लालच में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चापेकर बंधुओं का सुराग दे दिया। दोनो ने केवल 600 रुपए में पूरा प्लान बता दिया। दामोदर गिरफ़्तार हुए। उनको पता था कि उनको फांसी दी जाएगी और उनके दोनो सगे भाइयों को भी पकड़ा जाएगा। तब उन्होंने लोकमान्य तिलक के द्वारा संदेश भिजवाया कि दोनो गद्दारो का प्रतिशोध लिए बिना गिरफ्तार नहीं होना है। योजना बनी और दोनों गद्दार द्रविड़ बंधुओं का भी वध किया गया। परंतु उसके बाद वासुदेव और साथी गोविंद विनायक रानाडे भी गिरफ्तार किए गए। अंग्रेजो ने सारी हदें पर करते हुए गति से केस की सुनवाई पूरी कर चारों को फांसी की सजा सुना दी।
18 अप्रैल 1898 को प्रात: "गीता' पढ़ते हुए दामोदर हरि चापेकर फांसीघर पहुंचे और फांसी के तख्ते पर लटक गए। उस क्षण भी "गीता' उनके हाथों में थी। वासुदेव चापेकर को 8 मई को और बालकृष्ण चाफेकर को 12 मई 1899 को यरवाडा कारागृह में फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने के पहले ईसाई तरीके से गलती की माफी की अंग्रेजो की प्रार्थना की परम्परा पूरी करने आए पादरी को रोक कर उन्होंने कहा कि," हमने कोई गलती नहीं की है। यह हमारी माता-भगिनियों पर हुए अत्याचारों के प्रतिशोध का संकल्प था।" अंतिम इच्छा पुछी तो बोले, "आपका, अंग्रेजों का अत्याचारी शासन भी जल्दी मरे, यही इच्छा है', फिर पुनर्जन्म की प्रार्थना की, भारत माता का जयकारा लगाया और फांसी पर गए।
जिन अत्याचारों के विरूद्ध बलिदान दिया, वह सार्थक हुआ। प्लेग की जांच के लिए अंग्रेजों की पुलिस के बजाय डॉक्टर और नर्स आने लगी। लाखों बहनों की इज्जत और प्राण बचे, लड़ाई सार्थक हुई। इसके बदले 4 बलिदान का सौदा नुकसान का नहीं, यही कहना था चापेकर बंधुओं का।
केशरी में तिलक संपादकीय लिखते हैं, “अंग्रेजों को कान के नीचे आवाज करे बग़ैर सुनाई नही देता। लोग चापेकर बंधुओ को सिरफिरे युवक कह कर अपमानित कर रहे थे। तब टिलक लिखते हैं कि मतलब उनके पास सिर था, इस लिए वय सिरफिरे बन पाए। अन्य लोगों के पास ना सिर हैं ना गर्दन”
अंग्रेजो ने लोकमान्य तिलक जी पर भी मुकदमा चलाया। कारण दिया गया कि फर्ग्युसन महाविद्यालय में चर्चा चल रही थी कि छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने अफजल खान को मारा, यह सही था या गलत। इस पर भाषण देते समय तिलक जी ने गीता का रहस्यमय अर्थ बताते हुए कहा था, “यदि कोई व्यक्ति अपने कर्मों के फल को भोगने की इच्छा से प्रेरित हुए बिना कर्म कर रहा है, तो उसे कोई दोष नहीं लगता ... अपनी दृष्टि को कुए के मेंढ़क की तरह सीमित न करें, दंड संहिता से बाहर निकलो, श्रीमद्भगवद्गीता के अत्यंत उच्च वातावरण में प्रवेश करो और फिर महापुरुषों के कार्यों पर विचार करो। छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने जो किया था, वह सही किया था और हर युग में यह अनिवार्य और धर्म संगत है।" उनकी इस बात को उकसाने की बात मानकर, आज की भाषा में हेट स्पीच मान कर उन पर मुकदमा चलाया गया था।
एक ही घर के सभी तीन क्रांतिकारी युवक फांसी पर चढ़ाए गए, इसलिए स्वामी विवेकानंद जी की शिष्या भगिनी निवेदिता वीर पिता हरी पंत चाफ़ेकर जी को सांत्वना देने उनके घर गई थी। पिता का हौसला बढ़ा रही थी और रोने से रोक रही थी, तब उन हुतात्मों के पिता कहते है,” मेरे तीनों बेटे फांसी पर झूल गए इसके दुख से नहीं रो रहा हूं।, स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति के लिए मेरे पास तीन ही बेटे क्यों थे? इस लिए रो रहा हूं। मेरे पास अधिक आहुति डालने के लिए 4/5/6/7 बेटे होते तो उनकी भी आहुति इस बलि वेदी पर देता”।
इस घटना को भगिनी निवेदिता जी ने स्वयं लिखा और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने इसे अपने “केशरी अखबार” में छापा। उसी को पढ़ कर युवा सावरकर ने कहा था कि हम आपके सात बेटे हैं। उनका अधूरा काम हम पूर्ण करेंगे। संघर्ष की मशाल की इस अग्नि की ज्वाला को आगे बढ़ाएंगे।
आएं, हम भी उसी ज्वाला को आगे बढ़ाए, महान हुतात्माओं को नमन करें।
सुरेश चव्हाणके
मुख संपादक
सुदर्शन न्यूज चैनल
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