ये भारत की तथाकथित सेकुलर राजनीति और नकली कलमकारों एवं चाटुकार इतिहासकारों द्वारा भारत के वीर वीरांगनाओं को भुला दी गई. अन्यथा वीर वीरांगनाओं ने अपना कर्तव्य निभा ही दिया था. नारियों के लिए जिस देश मे आदर्श बना कर टेरेसा को प्रस्तुत किया जाता रहा है. उसमें वीरांगना शांति घोष जी का नाम भी शामिल हो सकता था लेकिन चाटुकार इतिहासकार व नकली कलमकारों ने जो कुछ किया उसकी क्षमा शायद ही समय के पास हो.
शांति घोष जी का जन्म 22 नवंबर, 1916 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था. उनके पिता का नाम देवेंद्र नाथ घोष जी था, जो प्रोफेसर और राष्ट्रवादी थे इसलिए शांति घोष जी पर बचपन से ही राष्ट्रभक्ति का प्रभाव था. वह बचपन से ही क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ा करती थीं इसलिए उनका रुझान स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ बढ़ने लगा. एक छात्र सम्मेलन ने शांति जी को देश के लिए की जानी वाली गतिविधियों के लिए ऊर्जा दी.
त्रिपुरा के कोमिल्ला जिले के मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस जिले के क्रांतिकारियों को कड़ी यातनाएं दे रहा था. स्टीवंस की इन यातनाओं के लिए क्रांतिकारियों ने उसे सजा देने की योजना बनाई. स्टीवंस भी जानता था कि जिस तरह वह इन लोगों पर कहर बरपा रहा है उससे वे परेशान हैं और वे उसके खिलाफ योजना बना रहे हैं. इसके चलते वह अपनी सुरक्षा का पूरा ख्याल रख रहा था. वह ज्यादातर अपने घर पर ही रहने लगा और उसके बंगले पर पुलिस हमेशा तैनात रहती थी. कोई उससे मिलने आता था तो उसकी तलाशी ली जाती थी.
चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस को मौत के घाट उतारने के लिए योजना बनाई गई और इसकी जिम्मेदारी कक्षा 8 में पढ़ने वाली दो छात्राओं शांति घोष जी और सुनीति चौधरी जी को दी गई. 14 दिसंबर, 1931 को दोनों बग्घी में बैठकर स्टीवंस के घर पहुंचीं और बंगले पर जाकर कहा कि उन्हें मजिस्ट्रेट साहब से मिलना है. उन्होंने असली नाम ना बताकर कुछ और नाम लिखकर अंदर भेजे. स्टीवंस दरवाजे पर आकर बालिकाओं से मिला. बालिकाओं ने मजिस्ट्रेट से कहा कि तैराकी प्रतियोगिता के लिए वह व्यवस्था के खास इंतजाम चाहती हैं. उन्होंने आवेदन पत्र दिया और मजिस्ट्रेट ने लिख दिया- प्रिंसिपल अपना अभिमत दें.
यह लिखकर उसने पर्चा वापस लौटा दिया, तभी शांति और सुनीति ने रिवॉल्वर निकाल कर स्टीवंस पर गोली दाग दी. गोली दिल में लगी थी इसलिए उसकी मौत हो गई. दोनों बालिकाओं को पकड़ लिया गया और 27 जनवरी को फैसला सुनाया गया. दोनों की उम्र 14 साल थी यानी वे नाबालिग थीं इसलिए फांसी न देकर आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई. जेल में सुनीति और शांति को अलग बैरक में रखा गया. साल 1939 में शांति घोष जी को राजनैतिक बंदी होने के कारण रिहा कर दिया गया.
जानकारी के लिए बता दें कि ब्रिटिश अफसर को मार कर शांति और सुनीति ने भगत सिंह जी और उनके साथियों की फांसी का बदला लिया था. उस समय दोनों की उम्र सिर्फ 14 साल थी. देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाली यह वीरांगना अपने जीवन के करीब 73 आयु में मातृभूमि की सेवा में व्यतीत करने के पश्चात 28 मार्च 1989 को बलिदान हो गया था.
नकली कलमकारों और चाटुकार इतिहासकारों द्वारा साजिशन भुला दी गई. इन रणचंडी क्रान्तिपुत्री के द्वारा किए गए शौर्य रूपी कार्यो को आज सुदर्शन न्यूज़ बारम्बार नमन करते हुए इनके गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने और उन तमाम नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध को अनंत काल तक जनमानस के आगे रखने का संकल्प दोहराता है.