भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में अनेक कम आयु के महावीरों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी थी. उनमें से एक है खुदीराम बोस जी जिनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है. बात उन दिनों की है जब भारत माता अंग्रेजी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी, उन दिनों अनेक अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से बहुत दुर्व्यवहार करते थे.
ऐसा ही एक मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड उन दिनों मुजफ्फरपुर, बिहार में तैनात था. वह छोटी-छोटी बात पर भारतीयों को कड़ी सजा देता था. अतः क्रांतिकारियों ने उससे बदला लेने का निश्चय किया. कोलकाता में प्रमुख क्रांतिकारियों की एक बैठक में किंग्सफोर्ड को यमलोक पहुंचाने की योजना पर गहन विचार हुआ. उस बैठक में खुदीराम बोस जी भी उपस्थित थे. यद्यपि उनकी अवस्था बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने स्वयं को इस खतरनाक कार्य के लिए प्रस्तुत किया. उनके साथ प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व दिया गया.
योजना का निश्चय हो जाने के बाद दोनों युवकों को एक बम, तीन पिस्तौल तथा 40 कारतूस दे दिए गए. दोनों ने मुजफ्फरपुर पहुंचकर एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया. कुछ दिन तक दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया. इससे उन्हें पता लग गया कि वह किस समय न्यायालय आता-जाता है; पर उस समय उसके साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल रहता था. अतः उस समय उसे मारना कठिन था. अब उन्होंने उसकी शेष दिनचर्या पर ध्यान दिया. किंग्सफोर्ड प्रतिदिन शाम को लाल रंग की बग्घी में क्लब जाता था.
दोनों ने इस समय ही उसके वध का निश्चय किया. 30 अप्रैल,1908 को दोनों क्लब के पास की झाड़ियों में छिप गए. शराब और नाच-गान समाप्त कर लोग वापस जाने लगे. अचानक एक लाल बग्घी क्लब से निकली. खुदीराम जी और प्रफुल्ल जी की आंखें चमक उठीं. वे पीछे से बग्घी पर चढ़ गये और परदा हटाकर बम दाग दिया. इसके बाद दोनों फरार हो गए. परन्तु दुर्भाग्य की बात कि किंग्सफोर्ड उस दिन क्लब आया ही नहीं था. उसके जैसी ही लाल बग्घी में दो अंग्रेज महिलाएं वापस घर जा रही थीं. क्रांतिकारियों के हमले से वे ही यमलोक पहुंच गई.
पुलिस ने चारों ओर जाल बिछा दिया. बग्घी के चालक ने दो युवकों की बात पुलिस को बताई. खुदीराम जी और प्रफुल्ल जी चाकी सारी रात भागते रहे. भूख-प्यास के मारे दोनों का बुरा हाल था. वे किसी भी तरह सुरक्षित कोलकाता पहुंचना चाहते थे. प्रफुल्ल जी लगातार 24 घण्टे भागकर समस्तीपुर पहुंचे और कोलकाता की रेल में बैठ गए. उस डिब्बे में एक पुलिस अधिकारी भी था. प्रफुल्ल जी की अस्त व्यस्त स्थिति देखकर उसे संदेह हो गया. मोकामा पुलिस स्टेशन पर उसने प्रफुल्ल को पकड़ना चाहा; पर उसके हाथ आने से पहले ही प्रफुल्ल ने पिस्तौल से स्वयं पर ही गोली चला दी और बलिपथ पर बढ़ गए.
इधर खुदीराम जी थक कर एक दुकान पर कुछ खाने के लिए बैठ गए. वहां लोग रात वाली घटना की चर्चा कर रहे थे कि वहां दो महिलाएं मारी गई. यह सुनकर खुदीराम जी के मुंह से निकला - तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया ? यह सुनकर लोगों को सन्देह हो गया और उन्होंने उसे पकड़कर पुलिस को सौंप दिया. मुकदमे में खुदीराम जी को फांसी की सजा घोषित की गई.
अत: 11 अगस्त, 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम जी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए. तब उनकी आयु मात्र 18 वर्ष 8 माह और 8 दिन थी. जहां वे पकड़े गये, उस पूसा रोड स्टेशन का नाम अब खुदीराम के नाम पर रखा गया है. आख़िरकार ये योद्धा अमरता को प्राप्त हुआ जब उसके हाथ में भगवान कृष्ण का मानवमात्र के लिए आदेश श्रीमद्भागत गीता हाथ में थी. आज वीर बलिदानी खुदीराम बोस जी की जयंती पर उनको शत शत नमन करते हुए सुदर्शन परिवार उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है.