कुम्भ मेला, जिसे विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन माना जाता है, केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीयता और सनातन धर्म की गहराई को समझने का एक माध्यम है। इसकी जड़ें एक पौराणिक कथा में निहित हैं, जो जीवन के संघर्ष और समाधान के साथ-साथ सह-अस्तित्व और समर्पण का प्रतीक है—अमृत मंथन। यह कथा कुम्भ मेले की आत्मा है, जो हर 12 वर्षों में भारत के चार पवित्र स्थलों पर आयोजित किया जाता है।
अमृत मंथन की कथा केवल देवताओं और असुरों के संघर्ष की कहानी नहीं है; यह मानव जीवन के संघर्ष, सहयोग और संतुलन का प्रतीक है। इसी कथा में अमृत के संरक्षण के लिए भगवान विष्णु ने जो कलश धारण किया, उससे जुड़े ज्योतिषीय और पौराणिक घटनाक्रम ने कुम्भ मेले की परंपरा को जन्म दिया।
अमृत मंथन की कथा
• समुद्र मंथन का कारण:
प्राचीन काल में, जब देवता और असुर एक दूसरे के साथ लगातार संघर्ष कर रहे थे, देवताओं ने अपनी शक्ति खो दी। दैत्यराज बलि के नेतृत्व में असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली। संकट से घिरे देवताओं ने भगवान विष्णु से मार्गदर्शन मांगा। विष्णु ने सुझाव दिया कि अमृत (अमरत्व का रस) प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया जाए।
• मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया।
• देवता और असुर दोनों ने इस प्रक्रिया में भाग लिया—यह इस कथा का पहला संदेश है: सहयोग के बिना समाधान संभव नहीं।
• मंथन से निकले रत्न और विष:
मंथन के दौरान 14 रत्न निकले, जिनमें लक्ष्मी, चंद्रमा, कामधेनु और कल्पवृक्ष जैसे रत्न शामिल थे। परंतु मंथन से निकला पहला परिणाम हलाहल विष था।
• इस विष ने संपूर्ण सृष्टि को संकट में डाल दिया।
• भगवान शिव ने इसे पीकर सृष्टि को बचाया और नीलकंठ कहलाए। यह घटना बताती है कि किसी भी महान कार्य के लिए त्याग और बलिदान आवश्यक है।
• अमृत कलश और संघर्ष: अंततः समुद्र मंथन से अमृत कलश प्रकट हुआ। इसे देखकर असुरों ने इसे हथियाने का प्रयास किया। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर असुरों को छल से दूर किया और देवताओं को अमृत ग्रहण कराया।
कुम्भ मेला का पौराणिक और ज्योतिषीय संबंध
जब अमृत कलश लेकर भगवान विष्णु देवताओं को लेकर भाग रहे थे, तो अमृत की कुछ बूंदें चार स्थानों पर गिरीं:
1. प्रयागराज (त्रिवेणी संगम)
2. हरिद्वार (गंगा के तट पर)
3. उज्जैन (क्षिप्रा नदी के तट पर)
4. नासिक (गोदावरी नदी के तट पर)
इन चार स्थलों पर आज भी कुम्भ मेला आयोजित किया जाता है।
ज्योतिषीय आधार:
• यह आयोजन ग्रह-नक्षत्रों की विशेष स्थिति पर निर्भर करता है।
• जब सूर्य, चंद्रमा, और बृहस्पति एक विशेष स्थिति में आते हैं, तो इन स्थलों पर कुम्भ मेला आयोजित होता है। यह सृष्टि के साथ हमारे ज्योतिषीय और आध्यात्मिक सामंजस्य का प्रतीक है।
संघर्ष और सहयोग का प्रतीक
अमृत मंथन की कथा यह सिखाती है कि:
• संघर्ष के बिना अमृत प्राप्त नहीं हो सकता।
• देवताओं और असुरों ने अपने मतभेदों को भुलाकर सहयोग किया, जिससे मंथन संभव हुआ।
समाज में संतुलन:
देवता और असुर मानव समाज की दो प्रवृत्तियाँ हैं—सत्य और असत्य, अच्छाई और बुराई। इन दोनों के संतुलन से ही सृष्टि का निर्माण होता है।
कुम्भ मेला इसी सहयोग और संतुलन का प्रतीक है। लाखों श्रद्धालु, साधु-संत और समाज के हर वर्ग के लोग यहाँ समान भाव से जुड़ते हैं।
आधुनिक संदर्भ में अमृत मंथन
1. व्यक्तिगत जीवन में संघर्ष और समाधान:
• अमृत मंथन हमें सिखाता है कि जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ (हलाहल विष) केवल त्याग और धैर्य से ही हल हो सकती हैं।
2. सामाजिक जीवन में सहयोग का महत्व:
• देवताओं और असुरों का सहयोग यह बताता है कि समाज में हर वर्ग का योगदान महत्वपूर्ण है।
3. पर्यावरण संरक्षण:
• विष के पीने की कथा यह सिखाती है कि हमें प्रकृति के विष (प्रदूषण) को दूर करने के लिए सामूहिक प्रयास करना होगा।
कुम्भ मेला: अमृत मंथन का आधुनिक रूप
कुम्भ मेला हर 12 वर्षों में केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक ऐसा आयोजन है जो:
• समरसता और सहयोग का प्रतीक है।
• आध्यात्मिकता और आधुनिकता के संतुलन को दर्शाता है।
• हर व्यक्ति को यह सिखाता है कि जीवन के संघर्षों को धैर्य, त्याग और संतुलन के साथ कैसे सुलझाया जाए।
अमृत मंथन की कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन के संघर्षों का समाधान केवल सहयोग, धैर्य और त्याग से संभव है। कुम्भ मेला इसी विचार का प्रतीक है। यह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने, अपने भीतर के विष को दूर करने, और जीवन के अमृत (सत्य, सहयोग और आत्मज्ञान) को प्राप्त करने का अवसर देता है।
अमृत मंथन केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि यह हर व्यक्ति और समाज के जीवन का दर्शन है। कुम्भ मेला इस दर्शन को जीवंत करता है।
- डॉक्टर सुरेश चव्हाणके
मुख्य संपादक, सुदर्शन न्यूज़ चैनल