सुदर्शन के राष्ट्रवादी पत्रकारिता को सहयोग करे

Donation

8 जनवरी: 1026 में आज ही के दिन आतताई आक्रांता नरपिशाच महमूद गजनवी ने लूट कर नष्ट कर दिया था हिंदुओं के आराध्य भगवान सोमनाथ का पवित्र मन्दिर

1011 ई. में गजनवी ने मुलतान को लूटा और यहां के एक प्रसिद्घ हिंदू मंदिर के पुजारियों के हाथ पैर काटकर फेंक दिये गये और शेष जनों को चीर फाड़ दिया गया.

Sumant Kashyap
  • Jan 8 2025 8:11AM

शायद आज के इतिहास की चर्चा भारत के स्वघोषित बुद्धिजीवयों व नकली कलमकारों के लिए खास महत्व नहीं रखती हो क्योंकि ये इतिहास उनके खुद से रचे गए स्वरचित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है. इसमें चर्चा हिन्दू की है, इसमें चर्चा हिंदुत्व की है, इसमें चर्चा हिन्दुओ के आराध्य भगवान सोमनाथ की है.

इसमें चर्चा एक हिन्दू शासक जयपाल की भी है और चर्चा है एक क्रूर आक्रांता ग़ज़नवी की, आज अगर वो चर्चा कर देंगे उस काले पन्ने की तो आगे उस पाकिस्तान की , बंगलादेश की व कश्मीर की भी होगी जिसे वो सभी प्रमाण होते हुए भी ढकने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं.

असल मे सच्चा इतिहास सामने आने से जनता उनकी बुद्धिजीविता पर सवाल खड़े कर देगी जिसको वो किसी भी हाल में स्वीकार नहीं कर सकते भले ही उज़के लिए देश किसी बड़े सच को जानने से वंचित रह जाये और अपने गौरवशाली पूर्वजो को जानने के बजाय लुटेरों के बारे में पढ़ता रहे जिसके चलते बाबरी जैसे विवाद खड़े होते रहें और एक बड़ा वर्ग हत्यारो व लुटेरों को गलतफहमी में अपना आदर्श मानती रहे.

महमूद ग़ज़नवी के बारे में तो आपने सुना ही होगा जिसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए हैं. महमूद ग़ज़नवी मध्य अफ़ग़ानिस्तान में केन्द्रित गज़नवी वंश का एक हमलावर लुटेरा था जो पूर्वी ईरान भूमि में साम्राज्य विस्तार के लिए जाना जाता है.

वह तुर्क मूल का था और अपने समकालीन और बाद के सल्जूक़ तुर्कों की तरह पूर्व में एक सुन्नी इस्लामिक राज्य बनाने में सफल हुआ. उसके द्वारा लूटे गए प्रदेशों में आज का पूर्वी ईरान अफगानिस्तान और संलग्न मध्यएशिया सम्मिलिलित रूप से ख़ोरासान पाकिस्तान और उत्तर पश्चिम भारत शामिल थे.

महमूद ग़ज़नवी यमीनी वंश का तुर्क सरदार ग़ज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था. उसका जन्म ई. 971 में हुआ, 27 वर्ष की आयु में ई. 998 में वह शासनाध्यक्ष बना था. महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था. महमूद भारत की दौलत को लूटकर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था.

उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहां की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर ग़ज़नी ले गया था. आक्रमणों का यह सिलसिला 1001 ई. से आरंभ हुआ।महमूद इतना विध्वंसकारी शासक था कि लोग उसे मूर्तिभंजक कहने लगे थे. यद्द्पि इसके पीछे उसकी मज़हबी कट्टरपंथी विचारधारा जो आज भी कईयो में पाई जाती है, को नही बताया गया.

श्रीराम के मंदिर का विरोध, कश्मीर के मंदिरों पर हमले, मंदिरों में ब्लास्ट , अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध मूर्ति विध्वंस, इराक में सभी मूर्तियों को तोड़ना आदि इसके वर्तमान प्रमाण कहे जा सकते हैं. महमूद ग़ज़नवी का सबसे बड़ा आक्रमण 1026 ई. में काठियावाड़ के सोमनाथ मंदिर पर था.

देश की पश्चिमी सीमा पर प्राचीन कुशस्थली और वर्तमान सौराष्ट्र (गुजरात) के काठियावाड़ में सागर तट पर सोमनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर है. स्कंद पुराण में इसका उल्लेख मिलता है. चालुक्य वंश का भीम प्रथम उस समय काठियावाड़ का शासक था.

विध्वंसकारी महमूद ने सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग तोड़ डाला. मंदिर को ध्वस्त किया. हज़ारों पुजारी मौत के घाट उतार दिए और वह मंदिर का सोना और भारी ख़ज़ाना लूटकर ले गया. अकेले सोमनाथ से उसे अब तक की सभी लूटों से अधिक धन मिला था.

वो दिन आज का ही अर्थात 8 जनवरी का था जिसको कभी सामने नही आने दिया नकली कलमकारों ने,वो यहीं नही रुका था, वो क्रूरता की हदें पार करता गया. उसका अंतिम आक्रमण 1027 ई. में हुआ. उसने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया था और लाहौर का नाम बदलकर महमूदपुर कर दिया था.

असल में लुटेरों को राज्यसिंहासन और वास्तविक उत्तराधिकारियों को वनवास दिलाना कुछ तथाकथित भारतीय प्रचलित इतिहासकारो का सबसे घातक छल प्रपंच है. जिन कथित इतिहास लेखकों ने इस राष्ट्र अपघात को करने में किसी भी प्रकार से सहयोग दिया है वे सभी 'मंथरा' की भूमिका में हैं.

महमूद गजनवी का लुटेरा व्यक्तित्व भी भारत के लिए ऐसा ही है, जिसे यहां के इतिहास पुरूषों में वर्तमान इतिहास में अच्छा स्थान प्राप्त है. इतिहास की प्रस्तुति ही इस प्रकार की गयी है कि लुटेरा हावी रहे और लुटेरे से टक्कर लेने वाले राष्ट्रायक अथवा राष्ट्र प्रहरी मक्खी मच्छर दिखायी दें.

इस बात को सिरे चढ़ाने के लिए छल प्रपंचों की कहानी को इस प्रकार गढ़ा गया कि भारत में राष्ट्र,राष्ट्रवाद और राष्ट्र ता तो कभी थी ही नही, यह तो हम पर विदेशियों का उपकार रहा कि उन्होंने यहां पर अपने बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित किये और हमें एक राष्ट्र ता के सूत्र में पिरोया. 

हम निराश और हताश थे और उस निराशा व हताशा के परिवेश में गजनवी ने हम पर आक्रमण करके यहां हिंदू-मुस्लिम ऐक्य का इतिहास बनाने में तथा दोनों संस्कृतियों को एक साथ लाकर बिठाने में अनुकरणीय सहयोग दिया, ये है वो साजिश जिसको थोपने का प्रयास किया गया हम पर.

ऐसे बुद्घिहीन तर्कशास्त्रियों को कौन समझाए कि गजनवी का भारत पर किया गया आक्रमण पूर्णत: लूट से प्रेरित था. दूसरे जो व्यक्ति अपने देश में विशाल साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहा, वह भारत में कैसे सफल हो सकता था? तीसरे यह बात भी विचारणीय है कि महमूद का पूरा जीवन रक्तपात से भरा रहा, क्रूरता उसके स्वभाव में थी और रक्तपात व क्रूरता से कभी किसी संस्कृति का निर्माण नही होता.

हां, उससे अपसंस्कृति का विकास अवश्य होता है, जो कि संस्कृति के विपरीत बहने वाली एक दुष्टï विचारधारा होती है. इसलिए दो संस्कृतियों को साथ लाकर बिठाने की बात असंगत ही नही अपितु हास्यास्पद भी है. गजनवी का सुल्तान महमूद' नामक पुस्तक में लिखा है कि -'धन और शक्ति के लोभ से ही (महमूद गजनवी) उसने भारत पर धावा किया था.

 ग़ज़नवी का जीवन स्पष्ट बताता है कि वह चाहे जो भी हो भले गुणों का आदर्श रूप कदापि नही था, जैसा कि नकली कलमकारों ने उसे चित्रित किया है. उसका नैतिक चरित्र परवर्ती शासकों के समान ही था न अच्छा न बुरा। शराब साकी और संग्राम में वह उन्ही जैसा था. 

अलबरूनी लिखता है-महमूद ने देश की प्रगति का सत्यानाश कर दिया। नानी की कहानियों की भांति उसने ऐसे ऐसे चमत्कार दिखाए कि हिंदू चूर-चूर होकर धूल के कणों की भांति चारों ओर बिखर गये. इन कथ्यों, सत्यों और तथ्यों के होने के उपरांत भी हमारे इतिहास में हमें महमूद गजनवी की ऐसी तस्वीर समझायी जाती है, जिससे कि वह लुटेरा ना लगकर उदार लगे. 

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसकी बड़ाई की सारी कहानियां उसके बाद झूठ-मूठ गढ़ी गयी थीं। प्रो. हबीब का कहना है कि गजनवी ने प्रति वर्ष भारत के हिंदुओं के प्रति जेहाद का कुठार चलाने की प्रतिज्ञा की थी. इसलिए उसने अपनी 30 वर्ष की लुटेरी जिंदगी में भारत पर 17 बार आक्रमण किये थे.

महमूद गजनवी ने सन 1000 में पहली बार सिंधु नदी पार की और तटवर्ती नगरों और असुरक्षित दुर्गों को लूटकर तथा स्त्रियों व बच्चों को बड़ी संख्या में बंदी बनाकर लौट गया। दूसरा आक्रमण उसने 1001 में किया. 28 नवंबर को राजा जयपाल से उसका भीषण संग्राम हुआ.

राजा जयपाल हार गये और उस पराजित महायोद्घा ने राष्ट्र की सुरक्षा में स्वयं को असफल पाकर स्वयं को अग्नि के समर्पित कर दिया. राजा का यह बलिदान अब तक के ज्ञात इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखी जाने वाली घटना है, क्योंकि राजा के भीतर राष्ट्र के प्रति अपने द्वारा राष्ट्र धर्म न निभाए जाने का भाव निरंतर बलवती हो रहा था, और उसी के आवेग में आकर राजा ने आत्महत्या करना उचित समझा.

इसलिए राजा का यह बलिदान मां भारती की स्वतंत्रता के लिए दिया गया बलिदान था। उस योद्घा के इस महाबलिदान को स्वतंत्रता के लिए स्थापित किया गया एक स्मारक मानकर पूजना चाहिए था, परंतु हमने विदेशी आक्रांता के साथ साथ राजा जयपाल को भी विदेशी (पेशावर का शासक होने के कारण) मान लिया.

हमने इस युद्घ को अपने बारे में कुछ यूं स्थापित किया है कि जैसे दो विदेशी लड़ रहे थे और किसी का भी अंत हो गया तो इससे हमें क्या लेना? जबकि एक का लड़ने का उद्देश्य इस सर्वाधिक पवित्र भारत भू पर अपना अधिकार करना था और दूसरे का उद्देश्य पहले वाले का बलात अधिकार ना होने देना था. 

दोनों के उद्देश्यों की पवित्रता या अपवित्रता स्पष्ट है. इसी के आधार पर दोनेां के व्यक्तित्व का निर्धारण किया जाना अपेक्षित था. निश्चित रूप से दूसरा ही पवित्र था पर उसके साथ हमने क्या किया? 'एक ही परिवार' को ही एकमात्र स्वतंत्रता सैनानी मानने की हमारी आत्मघाती प्रवृत्ति की भेंट यह महान स्वतंत्रता सैनानी चढ़ गया.

इसे वही दिन माना जा सकता है जब अफ़ग़ानिस्तान हिन्दुओ के हाथ से सदा के लिए निकल गया था. 1005 में महमूद ने भेदा (झेलम के पश्चिमी तट पर इसके खण्डहर अभी हैं) के राजा विजयपाल के साथ युद्घ हुआ. राजा विजयपाल ने भी गजनवी का डटकर सामना किया। चार दिन तक घोर संग्राम चला. 

राजा ने और उसकी सेना ने अदभुत शौर्य का परिचय दिया. रात्रि में युद्घ भारतीय परंपरा में निषिद्घ है और पाप माना जाता है. लेकिन गजनवी जिस खून से पैदा था उसमें प्यार में और युद्घ में सब कुछ उचित माना जाता है, इसलिए उसने रात्रि में राजा विजयपाल को छल और कपट से पराजित कर दिया. 

इस प्रकार एक और योद्घा 1005 में राष्ट्रेदी पर अपना बलिदान देकर राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए महाप्रयाण कर गया. यह अलग बात है कि उसकी समाधि भी हमने आज तक नही बनायी है और ना ही उसे अपने स्वतंत्रता संग्राम का सेनानायक ही माना है.

1007 में महमूद ने सिंध पर आक्रमण किया और वहां के शासक दाउद (जो कि पूर्व से एक हिंदू ही था) को पराजित किया. दाउद ने मतांतरण कर लिया था इसलिए उसे यह अनुभूति नही रही थी कि महमूद के साथ लड़ते समय वह पूरे भारत वर्ष का प्रतिनिधित्व कर रहा है. वह भीतर से पराजित भाव से ग्रस्त था.

इसलिए 20,000 दिहराम देकर उसने महमूद से संधि कर ली. मतांतरण से मर्मांतरण और मर्मांतरण से राष्ट्रतरण का यह पहला उदाहरण था. हमारे अपने हमसे दूर हुए तो उसका परिणाम राष्ट्रतरण में जाकर निकला. दाउद जैसे लोग ही आज के अफगानिस्तान के निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं.

क्योंकि महमूद गजनवी ने लुटेरा होकर भी दाउद जैसे धर्मभ्रष्ट लोगों की धर्मभ्रष्टाता का लाभ उठाकर देश के पश्चिमी भूभाग पर जिस राज्य की स्थापना की वही कालांतरण में अफगानिस्तान और फिर पाकिस्तान के जन्म का कारण बना. दाऊद के पश्चात महमूद गजनवी का सामना राजा जयपाल के पौत्र सुखपाल से हुआ.

इसे पकड़कर बलात मुसलमान बना लिया गया और इसका नाम शाह रखा गया. समय पाकर सुखपाल ने अपने आपको पुन: हिंदू घोषित कर लिया तो उसे गजनवी ने धोखे एवं छल से पकड़वाकर बंदी बना लिया और आजीवन कारावास में डालकर अमानवीय यातनाएं दीं. सुखपाल ने ये यातनाएं 'हिंदुत्व' के लिए सहीं.

जी हां, उसी हिंदुत्व के लिए जिसे हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने भी भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतीक माना है। राजा हिंदुत्व के प्रति पूर्णत: समर्पित था और वह डाकुओं के लुटेरे दल से अपने देश को उजड़ते देखना नही चाहता था. दूसरे उसके भीतर अपने दादा जयपाल का रक्त बह रहा था.

इसलिए वह मुस्लिम धर्म को स्वीकार करके गो हत्यारा बनाना उचित नही समझता था. फलस्वरूप उसने अवसर पाकर पुन: अपने हिंदू धर्म में आना ही उचित समझा. जिसका दण्ड उसे आजीवन दानवीय यातनाओं को झेलने में मिला. नकली इतिहासकारों जिस में कई आज अर्बन नक्सल कहे जाते हैं ने इस राष्ट्र भक्त हिन्दू राजा को आज तक महमूद गजनवी की जेल में डाल रखा है.

इनसे अच्छा तो गजनवी ही था जिसने उसे आजीवन कारावास देकर मानो उसकी मृत्यु के उपरांत तो मुक्त कर ही दिया, पर हमारे इतिहासकारों के सामने पता नही क्या बाध्यता है कि इस राष्ट्र भक्त को आजीवन कारावास से निकालने का ही प्रयास नही किया जा रहा? 

राजा जयपाल का बलिदान और उसके पौत्र सुखपाल के प्रति गजनवी का दुराचरण देश के जनसाधारण को भीतर तक साल गया था. सभी अपने इन महान राष्ट्रभक्त राजाओं के बलिदान के प्रति श्रद्घानत थे. इसलिए दुष्ट आक्रांता महमूद गजनवी के प्रति पूरे देश में एक घृणा का परिवेश निर्मित हो चुका था, जिसकी हमारे इतिहासकारों ने उपेक्षा की है.

ऐसी परिस्थितियों में 1008 ई. की वर्षा ऋतु में राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल से जब महमूद का सामना हुआ तो देशभक्ति का उत्साहवर्धक दृश्य पूरे देश में देखने को मिला। कुछ इतिहासकारों का यह कथन इसकी पुष्टिा करता है-हिंदू स्त्रियों ने अपने आभूषणों को बेचकर दूर दूर से (देश के काने कोने से) विक्रय राशि भेजी.  

देश की गरीब बहनों ने बुखार में भी चरखे चलाकर मजदूरी करके देश की सुरक्षा में योगदान दिया. अब जो पश्चिम के उच्छिष्ट भोजी इतिहासकार भारत में राष्ट्र की अवधारणा ही न होने की बात कहते हैं, वो प्रो. हबीब के इस कथन पर ध्यान दें और अपने गौरवपूर्ण अतीत के गौरवमयी स्मारकों को नमन करना सीखें.  

तनिक सोचें कि तुम्हारे अंग्रेज आकाओं का यह कहना तो कहीं तक उचित था (उनके हितों के अनुकूल होने के कारण) परंतु तुम क्यों उसी रट को लगाये जा रहे हो? राजा आनंदपाल को देश की जनता ने ही नही अपितु उज्जैन, कालिंजर, ग्वालियर, कन्नौज दिल्ली और अजमेर के राजाओं से भी सैन्य सहायता मिली ताकि संस्कृति नाशक विदेशी आक्रांता को मार भगाकर बाहर किया जाए. 

राजाओं की यह सैन्य सहायता देश की जनता में आये राष्ट्रभक्ति के उबाल के अनुरूप ही थी. जब महमूद हो गया था भयभीत राजा आनंदपाल के विशाल सैन्य बल को देखकर महमूद ने अपनी सेना की टुकड़ी के चारों ओर एक खाई खुदवाई और वह इतना भयभीत हो गया था कि राजा की राष्ट्रीय सेना पर उसका हमला करने का साहस नही हो रहा था. 

निरंतर चालीस दिन तक वह प्रतीक्षा करता रहा. इधर राजा को वीर गक्खर जाति ने भी अपना सहयोग देना स्वीकार किया था। 41वें दिन से जब महमूद ने युद्घ का प्रारंभ किया जो गक्खरों ने पहले दिन ही लगभग चार हजार विदेशी शत्रुओं को मृत्यु लोक पहुंचा दिया था. 

युद्घ सचमुच वीरता पूर्ण ढंग से लड़ा गया. परंतु बताया जाता है कि एक अग्निपिण्ड राजा आनंदपाल के हाथी को छूते हुए उसी के पास फट पड़ा, जिससे हाथी चीखता हुआ भाग निकलना. इससे हमारे विभिन्न राजाओं के सैन्य दलों ने समझा कि राजा मैदान छोड़कर भाग रहा है.  

जिससे हमारी राष्ट्रीय सेना में भगदड़ पड़ गयी और जीतती हुई बाजी को हम हार गये. इसमें परिस्थितियों का दोष था, शत्रु पर पहले आक्रमण न करने के हमारे आदर्श का दोष था, हमारे भीतर निरंतर 40 दिन तक प्रतीक्षा करते करते आयी निष्क्रियता का दोष था, असावधान होने की मानसिकता का दोष था. 

पराजय के कारण चाहे जो हों, परंतु इससे राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का अभिनंदन किया जाना तो बाधित नही होता. हम लेखन करते समय अपने पक्ष का उत्साह वर्धन करें और अपने राष्ट्रीय पक्ष में ही रहें तो यही उचित है. जीते हुए पक्ष के साथ लगकर उसकी जय जयकार करने की राष्ट्रघाती मानसिकता को गले क्यों लगायें? 

हमारी ऐसी सोच के कारण ही इतिहास के प्रति लोगों की यह धारणा बनी है कि इतिहास तो सदा विजयी के ही गुण गाता है. परंतु नही, इतिहास वीरों का गुणगान करता है, कर्मशील राष्ट्रभक्तों का वंदन करता है, और क्रूर, अमर्यादित, छली-कपटी और प्रजा उत्पीड़क विजयी राजा का भी उपहास करता है, उपेक्षा करता है, सही सही वर्णन कर उसका मान मर्दन करता है, सच को सच ही रहने दिया जाएगा तो ही इतिहास पढ़ने में आनंद आएगा. 

राजा आनंदपाल की भागती हुई सेना पर तथा देश के साधारण नागरिकों पर गजनवी की सेना ने दो दिन और दो रात निरंतर अत्याचार किये लूटपाट कर व्यापक नरसंहार किया गया। राजा आनंदपाल की इस पराजय के पश्चात गजनवी ने कांगरा के नगर कोट के मंदिर में लूटपाट की और प्रो. हबीब हमें बताते हैं कि महाभारत कालीन सोने चांदी के सात सौ मन पात्रों दो सौ मन चांदी और बीस मन बहुमूल्य रत्नों को वह ढोकर ले गया.

सन 1009-10 में गजनवी ने राजा आनंदपाल पर फिर चढ़ाई की. राजा को इस बार अन्य स्थानों से कोई सहायता नही मिली. गजनवी की सेना के नरसंहार, बलात्कार और अमानवीय अत्याचारों की पीड़ा से राजा और प्रजा व्यथित थे. इसलिए राजा ने कहा जाता है कि प्रतिवर्ष दो हजार गुलाम और 30 हाथी देने की बात कहकर गजनवी के साथ संधि कर ली.

फिर भी इस नर पिशाच का सामना घोर नामक जाति ने राष्ट्रभक्ति से प्रेरित होकर किया. परंतु गजनवी की विशाल सेना का सामना ये लोग नही कर पाए और इन सभी ने हजारों की संख्या में अपना सर्वोत्कृष्टा बलिदान देकर मां, भारती की स्वतंत्रता की कहानी के मौन अमर सिपाही बन गये. 

1011 ई. में गजनवी ने मुलतान को लूटा और यहां के एक प्रसिद्घ हिंदू मंदिर के पुजारियों के हाथ पैर काटकर फेंक दिये गये और शेष जनों को चीर फाड़ दिया गया. 1012 में उसने पंजाब के स्थानेश्वर (थानेश्वर) पर आक्रमण किया. इस आक्रमण में राजा आनंदपाल को और भी अपमानित किया गया. 

उसे महमूद ने आदेश दिया कि आक्रांता सेना के स्वागत सत्कार के लिए राजा प्रबंध करेगा और रास्ते में दुकानें आदि लगाएगा. दुखी मन से राजा ने यह व्यवस्था कराई. 'वीर प्रस्विनी' भारत माता अपना मन मसोसकर रह गयी. उसने महात्मा बुद्घ की अहिंसा परमो धर्म: और अशोक की हथियार फेंक नीति के घातक परिणाम देखकर इन दोनों के प्रति भी भीतर ही भीतर दुख के आंसू पिये.

मंदिर से अथाह धन संपदा और गुलामों की एक विशाल सेना लेकर महमूद यहां से चला गया. परंतु अपने पीछे छोड़ गया चीत्कार, चीख और यातनाओं की एक घृणास्पद कहानी. इस सारे दृश्य से राजा आनंदपाल सर्वाधिक आहत हुआ और शोक की अवस्था में ही उसका प्राणांत हो गया.

सहयोग करें

हम देशहित के मुद्दों को आप लोगों के सामने मजबूती से रखते हैं। जिसके कारण विरोधी और देश द्रोही ताकत हमें और हमारे संस्थान को आर्थिक हानी पहुँचाने में लगे रहते हैं। देश विरोधी ताकतों से लड़ने के लिए हमारे हाथ को मजबूत करें। ज्यादा से ज्यादा आर्थिक सहयोग करें।
Pay

ताज़ा खबरों की अपडेट अपने मोबाइल पर पाने के लिए डाउनलोड करे सुदर्शन न्यूज़ का मोबाइल एप्प

Comments

संबंधि‍त ख़बरें

ताजा समाचार