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17 सितंबर: आज ही के दिन सेना के आगे घुटने टेक दिए थे हैदराबाद के गद्दार पाकिस्तान परस्त निजाम ने

इतिहास की पुस्तकों पर काबिज वामपंथी इतिहासकारों ने लगातार इस झूठ को बनाए रखा की हैदराबाद का “विलय” हुआ है, जबकि वास्तव में निज़ाम को मजा चखाकर सरदार पटेल और केएम मुंशी ने हैदराबाद को “मुक्त” करवाया था.

Sumant Kashyap
  • Sep 17 2024 8:50AM

इतिहास की पुस्तकों में अक्सर हमें पढ़ाया गया है कि हैदराबाद के निजाम ने सरदार पटेल की धमकी के बाद खुशी-खुशी अपनी रियासत को भारत में “विलय” कर लिया था. जबकि वास्तविकता यह है कि हैदराबाद के निजाम ने अंतिम समय तक पूरा जोर लगाया था कि हैदराबाद “स्वतन्त्र” ही रहे, या फिर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की तरह पाकिस्तान का हिस्सा बना रहे.

जबकि वास्तविकता यह है कि उस समय की सभी घटनाएँ स्पष्ट रूप से सिद्ध करती हैं कि हैदराबाद का भारत में “विलय” नहीं हुआ था, बल्कि उसे घुटनों के बल पर झुकाकर उसे “कट्टर मज़हबी रजाकारों” के अत्याचारों से मुक्त करवाया गया था.

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लगभग 500 रियासतों ने भारत गणराज्य में विलय के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया था और 1948 आते-आते भारत एक स्पष्ट आकार ग्रहण कर चुका था. केवल जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम इस बात पर अड़े हुए थे कि वे “स्वतन्त्र” ही रहेंगे, भारत में विलय नहीं करेंगे. गृहमंत्री सरदार पटेल लगातार इस बात की कोशिश में लगे हुए थे कि मामला सरलता से सुलझ जाए, बल प्रयोग न करना पड़े. 

पटेल जी का यह कहना था कि जब मैसूर, त्रावनकोर, बड़ौदा और इंदौर जैसी बड़ी-बड़ी रियासतों ने “भारत” के साथ एकाकार होने का फैसला कर लिया है तो देश के बीचोंबीच “हैदराबाद” नामक पाकिस्तानी नासूर कैसे बाकी रह सकता है? यही हाल जम्मू-कश्मीर रियासत का भी था, जब पाकिस्तान से आए हुए हमलावरों ने कश्मीर की जमीन हड़पना शुरू की, तब कहीं जाकर अंतिम समय पर कश्मीर के महाराजा ने भारत संघ के साथ विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया और भारत ने वहाँ अपनी सेनाएँ भेजीं.

हैदराबाद के निजाम ने पहले दिन से ही स्पष्ट कर दिया था कि वह स्वतन्त्र रहना चाहते हैं. निजाम ने 11 जून 1947 को एक फरमान जारी करते हुए कहा कि वह 15 अगस्त 1947 के दिन हैदराबाद को एक स्वतन्त्र देश के रूप में देखेंगे. निजाम भारत के साथ एक संधि करना चाहता था, न कि विलय. 

इस्लामी रजाकारों और इस्लामी प्रधानमंत्री मीर लईक अली ने निजाम पर अपनी पकड़ मजबूत बना रखी थी. जिन्ना, जो कि पाकिस्तान का निर्माण कर चुके थे, उन्होंने भी निजाम की इस इच्छा को हवा देना जारी रखा. जिन्ना ने निजाम को सैन्य मदद का भी आश्वासन दे रखा था, क्योंकि निजाम ने नवनिर्मित पाकिस्तान को “ऋण” के रूप में बीस करोड़ रूपए पहले ही दे दिए थे.

1946-48 के बीच नालगोंडा, खम्मम और वारंगल जिलों के लगभग तीन हजार गाँवों को कम्युनिस्ट पार्टी के गुरिल्लाओं ने “मुक्त” करवा लिया. उस समय कम्युनिस्ट और रजाकारों के बीच लगातार संघर्ष चल रहे थे. चूंकि अंग्रेजों से आजादी के बारे में कोई पक्का निर्णय, समझौता और स्पष्ट आकलन नहीं हो पा रहा था, इसलिए पूरी तरह से निर्णय होने एवं संविधान निर्माण पूर्ण होने तक तत्कालीन भारत सरकार एवं निजाम के बीच 29 नवम्बर 1947 को एक “अस्थायी संधि” की गई. 

उस समय माउंटबेटन भारत के गवर्नर-जनरल थे. उनकी इच्छा थी कि भारत सरकार, निज़ाम को विशेष दर्जा देकर हैदराबाद का विलय अथवा अधिग्रहण करने की बजाय उनके साथ स्थायी संधि करे. जवाहरलाल नेहरू भी इसी पक्ष में थे की भारत की सेना और निजाम के बीच कोई खूनी संघर्ष न हो. तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल इस बात पर अड़े हुए थे की भारत के बीचोंबीच एक पाकिस्तान समर्थक इस्लामी देश वे नहीं बनने देंगे. लेकिन अंततः नेहरू एवं माउंटबेटन के निज़ाम प्रेम एवं दबाव में उन्हें झुकना पड़ा, जब तक कि जून 1948 में माउंटबेटन वापस इंग्लैण्ड नहीं चले गए.

इसके बाद तस्वीर में आए श्री केएम् मुंशी, जिन्हें समझौते के तहत भारत सरकार के एजेंट-जनरल के रूप में निज़ाम के राज्य में देखरेख करने भेजा गया. सरदार पटेल और मुंशी के बीच आपसी समझ बहुत बेहतर थी. हैदराबाद में रहकर केएम मुंशी ने इस्लामिक जेहादियों, रज़ाकारों और निज़ाम के शासन तले चल रहे हथियारों के एकत्रीकरण एवं उनके द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को निकट से देखा और उसकी रिपोर्ट चुपके से सरदार पटेल को भेजते रहे. 

इस बीच निज़ाम ने अपनी तरफ से खामख्वाह ही संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में भारत की शिकायत कर दी कि भारत सरकार उनके खिलाफ हथियार एकत्रित कर रही है और आक्रामक रुख दिखा रही है. जबकि वास्तव में था इसका उलटा ही, क्योंकि निज़ाम स्वयं ही एक स्मगलर सिडनी कॉटन के माध्यम से अपने इस्लामी रज़ाकारों के लिए हथियार एकत्रित कर रहा था. निज़ाम की इच्छा यह भी थी की वह पुर्तगालियों से गोवा को खरीद ले, ताकि समुद्र के रास्ते हथियारों की आवक सुगम हो सके.

माउंटबेटन ने भारत और निजाम सरकार के बीच कई दौर की बातचीत में हिस्सा लिया. माउंटबेटन को लगा था कि यह मामला आसानी से सुलझ जाएगा, इसलिए अंततः उसने एक समझौता मसौदा तैयार किया, जिसमें निजाम राज्य का भारत में ना तो विलय था, और ना ही उसका अधिग्रहण किया जा सकता था. इस मसौदे के अनुसार निज़ाम को कई रियायतें दी गई थीं, और भारत के साथ युद्ध विराम हेतु मना लिया गया था.

जून 1948 में यह समझौता मसौदा लेकर माउंटबेटन और नेहरू देहरादून में बीमार पड़े सरदार पटेल से मिलने पहुँचे ताकि उनकी भी सहमति ली जा सके. सरदार पटेल ने समझौता देखते ही उसे खारिज कर दिया. माउंटबेटन और नेहरू उस समय और भी निराश हो गए, जब जब इसकी खबर निजाम को लगी और उसने भी इस समझौते को रद्दी की टोकरी में डाल दिया. बस फिर क्या था, सरदार पटेल के लिए अब सारे रास्ते खुल चुके थे, कि वे अपनी पद्धति से निज़ाम और रजाकारों से निपटें. सरदार पटेल ने भारतीय सेना का बलप्रयोग करने का निश्चय किया, लेकिन नेहरू इसके लिए राजी नहीं थे. 

तत्कालीन गवर्नर जनरल सी.राजगोपालाचारी ने नेहरू और पटेल दोनों को एक साथ बैठक में बुलाया, ताकि दोनों आपस में बात करके किसी समझौते पर पहुँचें. बलप्रयोग संबंधी नेहरू का विरोध उस समय अचानक ठंडा पड़ गया, जब राजगोपालाचारी ने ब्रिटिश हाईकमिश्नर से आया हुआ एक टेलीग्राम नेहरू को दिखाया, जिसमें कहा गया था कि सिकंदराबाद में कई ब्रिटिश ननों का इस्लामी रजाकारों ने बलात्कार कर दिया है.

इधर भारतीय सेना के ब्रिटिश कमाण्डर जनरल रॉय बुचर ने नेहरू से मदद माँगी तो नेहरू ने उसे सरदार पटेल से से बात करने की सलाह दी. असल में रॉय बुचर का कहना था कि चूँकि अभी पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की मौत का शोक चल रहा है, इसलिए हमें हैदराबाद पर हमला नहीं करना चाहिए. साथ ही साथ रॉय बुचर पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन अंग्रेज जनरल से भी मिलीभगत करने में लगा हुआ था. सरदार पटेल ने रॉय बुचर का फोन टेप करवाया और उसे रंगे हाथों पकड़ लिया. पकडे जाने पर बुचर ने इस्तीफ़ा दे दिया, ताकि गद्दारी के आरोपों से बर्खास्तगी से बच जाए. अब सरदार पटेल के लिए रास्ता पूरी तरह साफ़ था.

13 सितम्बर को भारतीय सेनाओं ने तीन तरफ से हैदराबाद को घेरना शुरू किया. निज़ाम और रज़ाकारों को बड़ी सरलता से परास्त कर दिया गया. केवल पांच दिनों में अर्थात 18 सितम्बर 1948 को निज़ाम के जनरल सैयद अहमद इदरूस ने भारत के जनरल जेएन चौधरी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. लेकिन इतिहास की पुस्तकों पर काबिज वामपंथी इतिहासकारों ने लगातार इस झूठ को बनाए रखा की हैदराबाद का “विलय” हुआ है, जबकि वास्तव में निज़ाम को मजा चखाकर सरदार पटेल और केएम मुंशी ने हैदराबाद को “मुक्त” करवाया था. तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के लोगों को सरदार पटेल का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी दूरदृष्टि के कारण भारत के बीचोंबीच एक पाकिस्तान बनने से बच गया. अन्यथा निज़ाम का प्रधानमंत्री कासिम रिज़वी तत्कालीन निज़ाम शासन में हिन्दुओं की ऐसी दुर्गति करता कि हम कश्मीर के साथ-साथ हैदराबाद को भी याद रखते…

निज़ाम की नीयत शुरू से भारत के साथ मिलने की नहीं थी, वह इतनी सरलता से अपना इस्लामी राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. लगभग दो लाख हत्यारे और लुटेरे इस्लामी रज़ाकारों ने उसे समझा दिया था कि चाहे खून की नदियाँ बहानी पड़ें, लेकिन हम केवल पाकिस्तान में शामिल होंगे, भारत में नहीं… परन्तु अंततः भारतीय सेना के सामने यह विरोध केवल पांच दिन ही टिक पाया. 

कासिम रिज़वी जो कि मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (MIM) का संस्थापक था, वह इस पराजय को कभी नहीं पचा पाया. उन सभी गद्दारों को घुटने के बल बैठा देने वाले सभी फौजी वीरों को आज उनके विजय दिवस पर सुदर्शन परिवार नमन और वन्दन करता है और इस विजय दिवस को एक पर्व की तरह से मनाने का समस्त राष्ट्रवादियो से आह्वान करता है .

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