बहुत कम ही लोग जान रहे होंगे आज के इतिहास के बारे में, खैर जानेंगे भी कैसे? हिन्दू समाज के साथ हुई अच्छी या बुरी बातों का किसी भी तथाकथित बुद्धिजीवी इतिहासकार ने अपनी कलम से लिखा ही नही, जिसने लिखा था उसको साम्प्रदायिक आदि का नारा दे कर कुछ कलमकारों ने अपनी बिरादरी से अलग कर दिया था.
आज आरोप लगाया जाता है की कुछ हिंदूवादी देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं पर उस समय वो अपनी याद को ताजा करें तो खुद पाएंगे कि तब वो खुले तौर पर सेकुलर और साम्प्रदायिक का प्रमाण पत्र ले कर घूमते थे. उनकी कलम से सिर्फ एक या दो परिवारों का गुणगान हुआ और इतिहास बाबर के पीछे है ही नही उनके हिसाब से.
राजा भोज, चन्द्रगुप्त, हर्षवर्धन आदि की तो बात बहुत दूर है, उन्होंने छत्रपति शिवाजी व महाराणा प्रताप जी तक को हाशिये पर डाल दिया था. उसी कलम से दबाया व छिपाया गया एक इतिहास आज भी बना था जिसे भले ही न बदला जा सके पर उस से सबक लिया जा सकता था अगर उसको ढंग से चर्चा में लाया गया होता.
आज ही के दिन तत्कालीन पर्सिया के शासक शाह ने पर्सिया का नाम बदल कर ईरान रखा था. ये घटना 1934 की है, उसके बाद ईरान शिया बहुत इस्लामिक मुल्क के रूप में पूरी दुनिया भर में एक नए स्वरूप में सामने आया था. ये वही ईरान है जिसके चाहाबर बंदरगाह से कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान जबरन ले गया और अब उन्हें फांसी देने की स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया है.
इतना ही नही, कई अन्य अन्तराष्ट्रीय मंचो पर इसके कार्य भारत के बहुत अनुकूल नहीं रहे हैं. चलिए जानते हैं इसके अतीत में झांक कर और लेते हैं खुद शिक्षा जो आने वाली पीढ़ी को सतर्कता सन्देश के रूप में दी जा सके. सवाल ये भी है कि अपने देश मे फैज़ाबाद का नाम अयोध्या व इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने पर महीनों शोर मचाने वाली भारत की मीडिया का एक खास वर्ग इस पर क्या आज वैसा ही शो करेगा?
ईरान की सीमा हर काल में घटती बढ़ती रही. आज का ईरान प्राचीन काल के ईरान से बहुत भिन्न है. ईरान की पहचान पहले पारस्य देश के रूप में थी. उससे पहले यह आर्याना कहलाता था. प्राचीनकाल में पारस देश आर्यों की एक शाखा का निवास स्थान था.
वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा, सरयू के किनारे तक की सारी भूमि आर्य भूमि थी, जो अनेक प्रदेशों में विभक्त थी. जिस प्रकार भारतवर्ष में पंजाब के आसपास के क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था. ईरान के ससान वंशी सम्राटों और पदाधिकारियों के नाम के आगे आर्य लगता था, जैसे 'ईरान स्पाहपत' (ईरान के सिपाही या सेनापति), 'ईरान अम्बारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि.
प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ 'आर्य' शब्द बड़े गौरव के साथ लगाते थे. प्राचीन सम्राट दार्यवहु (दारा) ने अपने को अरियपुत्र लिखा है. सरदारों के नामों में 'आर्य' शब्द मिलता है, जैसे अरियराम्र, अरियोवर्जनिस इत्यादि. ईरान में इस्लामिक शासन आने से पूर्व इस्लाम के राजधर्म पारसी मत था.
ईसा पूर्व 6ठी शताब्दी में एक महान पारसीक (प्राचीन ईरानवासी) साम्राज्य की स्थापना 'पेर्सिपोलिस में हुई थी जिसने 3 महाद्वीपों और 20 राष्ट्रों पर लंबे समय तक शासन किया. इस साम्राज्य का राजधर्म जरतोश्त या जरथुस्त्र के द्वारा 1700-1800 ईसापूर्व स्थापित, 'जोरोस्त्रियन' था और इसके करोड़ों अनुयायी रोम से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे.
7वीं शताब्दी में तुर्कों और अरबों ने ईरान पर बर्बर आक्रमण किया और कत्लेआम की इंतहा कर दी. 'सॅसेनियन' साम्राज्य के पतन के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा सताए जाने से बचने के लिए पारसी लोग अपना देश छोड़कर भागने लगे. आतंक के इस दौर में कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आए.
वे एक छोटे से जहाज में बैठ अपनी पवित्र अग्नि और धर्म पुस्तकों को ले अपनी अवस्था की गाथाओं को गाते हुए खम्भात की खाड़ी में भारत के दीव नामक टापू में आ उतरे, जो उस काल में पुर्तगाल के कब्जे में था. वहां भी उन्हें पुर्तगालियों ने चैन से नहीं रहने दिया, तब वे सन् 716 ई. के लगभग दमन के दक्षिण 25 मील पर राजा यादव राणा के राज्य क्षेत्र 'संजान' नामक स्थान पर आ बसे.
गुजरात के दमण-दीव के पास के क्षेत्र के राजा जाड़ी राणा ने उनको शरण दी और उनके अग्नि मंदिर की स्थापना के लिए भूमि और कई प्रकार की सहायता भी दी. सन् 721 ई. में प्रथम पारसी अग्नि मंदिर बना. वर्तमान में भारत में पारसियों की जनसंख्या लगभग 1 लाख है जिसका 70% मुंबई में रहते हैं.