यह इतिहास की एक ऐसी भूल थी जिसके चलते देश को बहुत लंबा नुकसान सदियों तक उठाना पड़ा था और आज भी पड़ रहा है. उस समय देश में एक से बढ़ कर एक सूरमा और योद्धा थे जिनके साहस ताकत और बुद्धिमता का तोड़ अंग्रेजों के पास नहीं था लेकिन उसके बावजूद भी बहुत चालाकी से मुगलों ने अपने अंतिम सल्तनत को बचाने के लिए हर संभव कोशिश की थी. और रंगीन मिजाज व शायराना अंदाज रखने वाले बहादुर शाह जफर को आज ही के दिन यानि 17 मई 1857 को दिल्ली के तख्त का अंतिम मुगल सम्राट घोषित करते हुए उनके नेतृत्व में ही उस 1857 का महायुद्ध लड़ने का फैसला किया था.
इस महायुद्ध की शुरुआत महा योद्धा मंगल पांडे जी ने अपना लहू बहाकर की थी. इतिहास के कुछ जानकार ऐसा भी मानते हैं कि अंग्रेजों के मन में कहीं ना कहीं यह बात जरूर थी की हजारों साल से मुगलों की गुलामी झेल रहा एक समाज मुगलों के अत्याचार अन्याय और नरसंहार को भूला नहीं होगा और वह मुगलों को उखाड़ फेंकने में उनके साथ खड़ा होगा. लेकिन अंग्रेजों की ये सोच कहीं-कहीं उस समय धरी की धरी रह गई. उस समय भी धर्मनिरपेक्षता अर्थात आधुनिक रूप में भारत के कई हिंदू राजाओं के जेहन में समाया था और उन्होंने इस अकर्मण्य लाचार मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में 1857 का युद्ध लड़ने का फैसला किया था. खुद अंग्रेजों एक नाम ने लिखित रूप से स्वीकार किया है कि यदि 1857 की क्रांति के मुखिया बहादुर शाह जफर की जगह तात्या टोपे होते तो हम निश्चित रूप से हार जाते.
लेकिन मुगलों ने बड़ी चालाकी और बड़ी सफाई से अपने अंतिम सल्तनत को बचाने का पूरा प्रयास किया और बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने वाले तमाम हिंदू सम्राटों को लाकर खड़ा कर लिया, और आख़िरकार इस युद्ध में योग्य नेतृत्व योग्य सेनापति ना होने के चलते कई हिंदू सम्राटों की बलि चढ़ने पर भी अंग्रेजों के विरुद्ध हार मिली थी. बूढ़े व लाचार बहादुर शाह जफर ने इस पूरे युद्ध में एक भी तीर, एक भी तलवार का वार ना तो किया और ना ही अपने ऊपर सहा.
यहां तक कि वह दिल्ली से भागता हुआ रंगून तक पहुंच गया था लेकिन आखिरकार गिरफ्तार हुआ और जेल में ही उसकी मौत हुई थी..आज के दिन 17 मई अर्थात अंतिम मुगल सुल्तान की ताजपोशी के दिन पर निश्चित रूप से इतिहास का अध्ययन करने व उससे सबक व शिक्षा लेने का समय है. और साथ ही यह विचार करने का विषय है कि यदि आज के दिन बहादुर शाह जफर ने देश हित में खुद को अयोग्य मानकर अपने कदम खुद पीछे खींच लिए होते तो संभवत अंग्रेजों का खात्मा 1857 के युद्ध में ही हो गया होता. लेकिन अपनी मुगल सल्तनत को बचाए रखने के लिए जिस प्रकार से उन्होंने अयोग्य होने के बावजूद भी इस मामले में दखल दिया उसका प्रतिफल आज तक देश का इतिहास भुगत रहा है..