यदि ये गौरवगाथा बताई गई होती तो न सिर्फ अंग्रेजो के तमाम पाप दुनिया जान पाती बल्कि उन नकली कलमकारों व तथाकथित इतिहासकारों के भी अक्षम्य दोष उजागर होते जिन्होंने स्वतंत्र भारत में भी उस समय के क्रूर ब्रिटिश अफसरों के नाम के आगे अब तक सम्मान पूर्वक सर जैसे शब्द लगाए हैं ..
हापुड़ जिले उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले धौलाना तहसील में ऐसी बलिदान की गाथा है जिसे अगर दुनिया के आगे लाया जाता तो संसार भारत के पराक्रम के आगे नतमस्तक रहता..लेकिन मात्र अहिंसा व चरखे का बोलबाला रहा और ऐसे अनगिनत वीर हाशिये पर डाल दिये गए..
यहां नमन उन बलिदानी परिवारों को भी है जिनके वंशज अभी भी हैं लेकिन वो कभी भी अपने पूर्वजो के बलिदान के बदले मंत्री पद या वोट मांगने नहीं आये किसी के आगे. भारत के स्वाधीनता संग्राम में मेरठ की 10 मई, 1857 की घटना का बड़ा महत्व है.
इस दिन गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से खोलने से मना करने वाले भारतीय सैनिकों को हथकड़ी-बेड़ियों में कसकर जेल में बंद कर दिया गया. जहां-जहां यह समाचार पहुंचा, वहां की देशभक्त जनता तथा भारतीय सैनिकों में आक्रोश फैल गया.
मेरठ पुलिस कोतवाली में उन दिनों धनसिंह गुर्जर कोतवाल थे. वे परम देशभक्त तथा गौभक्त थे. अपने संपर्क के गांवों में उन्होंने यह समाचार भेज दिया. उनकी योजनानुसार हजारों लोगों ने मेरठ आकर जेल पर धावा बोलकर उन सैनिकों को छुड़ा लिया.
इसके बाद सबने दूसरी जेल पर हमला कर वहां के भी सब 804 बंदी छुड़ा लिये. इससे देशभक्तों का उत्साह बढ़ गया. इसके बाद सबने अधिकारियों के घरों पर धावा बोलकर लगभग 25 अंग्रेजों को मार डाला. इनमें लेफ्टिनेंट रिचर्ड बेलेसली चेम्बर्स की पत्नी शारलैंट चेम्बर्स भी थी.
रात तक पूरे मेरठ पर देशभक्तों का कब्जा हो गया. अगले दिन यह समाचार मेरठ के दूरस्थ गांवों तक पहुंच गया. हर स्थान पर देशभक्तों ने सड़कों पर आकर अंग्रेजों का विरोध किया, पर ग्राम धौलाना (जिला हापुड़, उत्तर प्रदेश) में यह चिंगारी ज्वाला बन गयी. क्षेत्र में मेवाड़ से आकर बसे राजपूतों का बाहुल्य है.
महाराणा प्रताप के वंशज होने के नाते वे सब विदेशी व विधर्मी अंग्रेजों के विरुद्ध थे. मेरठ का समाचार सुनते ही उनके धैर्य का बांध टूट गया. उन्होंने धौलाना के थाने में आग लगा दी. थानेदार मुबारक अली वहां से भाग गया. उसने रात जंगल में छिपकर बिताई तथा अगले दिन मेरठ जाकर अधिकारियों को सारा समाचार दिया.
मेरठ तब तक पुनः अंग्रेजों के कब्जे में आ चुका था. जिलाधिकारी ने सेना की एक बड़ी टुकड़ी यह कहकर धौलाना भेजी कि अधिकतम लोगों को फांसी देकर आतंक फैला दिया जाए, जिससे भविष्य में कोई राजद्रोह का साहस न करे. वह इन क्रांतिवीरों को मजा चखाना चाहता था.
थाने में आग लगाने वालों में अग्रणी रहे लोगों की सूची बनाई गई. यह सूची थी - सुमेरसिंह, किड्ढा सिंह, साहब सिंह, वजीर सिंह, दौलत सिंह, दुर्गासिंह, महाराज सिंह, दलेल सिंह, जीरा सिंह, चंदन सिंह, मक्खन सिंह, जिया सिंह, मसाइब सिंह तथा लाला झनकूमल सिंहल.
अंग्रेज अधिकारी ने देखा कि इनमें एक व्यक्ति वैश्य समाज का भी है. उसने झनकूमल को कहा कि अंग्रेज तो व्यापारियों का बहुत सम्मान करते हैं, तुम इस चक्कर में कैसे आ गये ? इस पर झनकूमल ने गर्वपूर्वक कहा कि यह देश मेरा है और मैं इसे विदेशी व विधर्मियों से मुक्त देखना चाहता हूं.
अंग्रेज अधिकारी ने बौखलाकर सभी क्रांतिवीरों को 29 दिसम्बर, 1857 को पीपल के पेड़ पर फांसी लगवा दी. इसके बाद गांव के 14 कुत्तों को मारकर हर शव के साथ एक कुत्ते को दफना दिया. यह इस बात का संकेत था कि भविष्य में राजद्रोह करने वाले की यही गति होगी.
इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऐसी धमकियों से बलिदान की यह अग्नि बुझने की बजाय और भड़क उठी और अंततः अंग्रेजों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा. वर्ष 1857 की क्रांति के शताब्दी वर्ष में 11 मई, 1957 को धौलाना में शहीद स्मारक का उद्घाटन भगतसिंह के सहयोगी पत्रकार रणवीर सिंह द्वारा किया गया.
प्रतिवर्ष 29 दिसम्बर को हजारों लोग वहां एकत्र होकर उन क्रांतिवीरों को श्रद्धांजलि देते हैं. आज 29 दिसंबर को धौलाना के उन सभी 14 वीर बलिदानियों बारंबार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है और उनके इतिहास को स्वर्ण अक्षरों से लिखवाने के लिए सतत प्रयास करते रहने का संकल्प भी.
साथ ही सवाल करता है उन तमाम कलमकारों व स्वघोषित इतिहासकारों से कि उन्होंने क्यों नहीं आने दिया ऐसे वीर बलिदानियों का सच्चा इतिहास देश की जनता के आगे. इन वीरो ने उनका क्या बिगाड़ा था जो उन्हें धकेला गया गुमनामी के स्याह अंधेरे में उन कलमकारों द्वारा जिनकी कलम सदा जय बोलती रही एक या दो परिवारों का या बाबर, अलाउद्दीन, तुगलक , तैमूर, अकबर, औरंगजेब जैसे क्रूर हत्यारों व लुटेरों की ?