आज़ादी के नकली ठेकेदार कभी नहीं चाहते थे कि दुनिया ये जाने की ये कौन थे .. क्यों कहा जाने लगा इन्हें भगवान ?.. अगर इसका राज वो बता देते तो उनके नकली ठेकेदार का क्या होता ..तोपों व बन्दूकों के आगे अपनी छाती को अड़ा दे कर उन्हें तीरों से ध्वस्त कर देने वाले को क्यों न भगवान माना जाय. सवाल ये भी है कि अगर आज़ादी चरखे से आई तो अंग्रेजों की छाती में धंसा बिरसा मुंडा जी का तीर किस बात का प्रतीक है…नकली कलमकारों व झोलाछाप इतिहासकारों के द्वारा किए गए अक्षम्य पाप का प्रतीक है भगवान बिरसा मुंडा जी का जवन जिन्हें स्वर्णिम अक्षरों से नही लिखा गया.
महायोद्धा बिरसा मुंडा जी 19 वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे. उनके नेतृत्व में आदिवासियों ने 19 वीं सदी के आखिरी वर्षों में आदिवासी के महान आन्दोलन को अंजाम दिया जिसने हिला दी थी ब्रिटिश सत्ता की जड़ें. बिरसा मुंडा जी को न सिर्फ आदिवासी समाज बल्कि राष्ट्रवादी लोग भी एक भगवान के रूप में पूजते हैं क्योकि तोपों को तीरों से खामोश करने का युद्ध कौशल केवल देवताओं या फिर बिरसा मुंडा में ही था ..पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा जी का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड की राजधानी रांची के उलीहातू गांव में हुआ था.
साल्गा गांव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आए. इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिशशासकों द्वारा की गई बुरी दशा पर सोचता रहता था. उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिए अपना नेतृत्व प्रदान किया.1894 में मानसून के छोटा नागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी.बिरसा मुंडा जी ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की. 1 अक्टूबर सन 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया. इसे अपराध मानते हुए 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गई. लेकिन बिरसा मुंडा जी और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया.
उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा जी और उसके चार सौ देशभक्त क्रांतिकारी सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गई लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुई. इन गिरफ्तारी करने वाले लोगों में तमाम वो गद्दार हिंदुस्तानी सिपाही भी थे जो मात्र मेडल व वेतन के लिए अपने ही देश के लोगों पर गोलियां बरसा रहे थे.
जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे.. अफसोस इतिहास में कभी उन मासूमो के नरसंहार की निंदा नही की गई, खास कर उनके द्वारा जो दिन रात गौ रक्षको पर नजर लगा कर बैठे होते हैं और उन्हें गुंडे मवाली बनाने का एक भी मौका नहीं गंवाते .. उस जगह बिरसा मुंडा जी अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुई. अंत में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तारी कर लिए गए. इस गिरफ्तारी में भी देश के अंदर के ही किसी गद्दार का हाथ था जिसे चाटुकारों ने छिपा दिया.
जेल की सलाखें भी बिरसा मुंडा जी के वजूद को चुनौती न दे पाई. घोर व अंतहीन प्रताड़ना दी जाने लगी जेल में उन्हें पर वो टस से मस नहीं हुए थे ..भयानक प्रताड़ना के चलते 9 जून 1900 को रांची कारागार में भगवान स्वरूप बिरसा मुंडा जी ने अपनी अंतिम सांस ली और प्राप्त कर ली सदा सदा के लिए अमरता. आज 15 नवंबर को उनकी जन्मजयंती दिवस पर हम उन्हें बारम्बार नमन करते है, और उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है .