आजदी मिलने से पहले ही भारत में अनेक स्थानों पर कट्टरपंथी खुलेआम गोहत्या करते थे, असल में वो इसके माध्यम से आने वाले बंटवारे की तैयारी कर रहे थे. जिस से हिंदू इस से उत्तेजित हो और वो वजह वाद विवाद का कारण बने. अक्सर इससे हिंदू भड़क जाते थे और दोनों समुदाय आपस में लड़ने लगते थे. उस समय ईसाई अंग्रेज यही चाहते थे.
इसलिए वे खुलेआम गोहत्या को प्रश्रय देते थे. ये घटना उस धर्म नगरी की है जिसको हिन्दुओ का मुख्य तीर्थ माना जाता है. ये जगह महादेव शिव की नगरी हरिद्वार थी और ये पूरी भूमि अदि काल से आज तक देवभूमि के रूप में जानी जाती है. जो फिलहाल अभी भी कई स्थलों पर विधर्मियो द्वरा दूषित की जा रही है. फिलहाल ये समय था 1918 का जब हरिद्वार इलाके में ग्राम कटारपुर (हरिद्वार) के कुछ गौ भक्षको ने आने वाली बकरीद पर सार्वजनिक रूप से गाय की हत्या कर के उसकी ही कुर्बानी की धमकी दे डाली थी.
हरिद्वार का स्थान उस समय देवलोक के बराबर माना जाता था और उस क्षेत्र में कभी ऐसा नहीं हुआ था. अतः हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की; पर वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह हो रहा था. लेकिन वहां से थोड़ी ही दूर पर पड़ने वाले हरिद्वार थाने में निरीक्षक शिवदयाल सिंह थानेदार थे. उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया. अतः उनके ही बल पर हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे जो हो; पर गोहत्या नहीं होने देंगे. यद्दपि इसमें थानेदार शिवदयाल सिंह को भी पता था कि उनकी नौकरी जानी तय है.
फिर आख़िरकार बकरीद का वो दिन आ ही गया. हिन्दुओं के विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ; पर अगले दिन गौ हत्यारों ने हिंदू समाज को भडकाने के लिए पांच गायों का जुलूस निकालकर उन्हें पेड़ से बांध दिया. वे बेहद उन्मादी और अति भड़कीले नारे लगा रहे थे. दूसरी ओर हनुमान मंदिर के महंत रामपुरी जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों गौ भक्त युवक भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध थे. उन्होंने गौ हत्यारों पर धावा बोला और बांधी गई सब गाय छुड़ा लीं. इस बीच में दोनों पक्षों में भयानक लड़ाई हुई. इस लड़ाई में लगभग 30 गौ हत्यारे मारे गए और बाकी तमाम भाग खड़े हुए थे.
आमने सामने हुई इस धर्म अधर्म की लड़ाई में कई गौ भक्त भी मारे गये थे. गौ भक्तों का नेतृत्व कर रहे हनुमान जी के मन्दिर के महंत रामपुरी जी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे. अतः वे भी वीरगति को प्राप्त हुए थे. ब्रिटिश शासित पुलिस और प्रशासन को जैसे ही गौ हत्यारों के मारे जाने की जानकारी हुई तो वह सक्रिय हो उठा. भले ही उस मुठभेड़ में गौ भक्त भी मारे गये थे लेकिन उस समय एकदम एकतरफा कार्यवाही की गई और केवल गौ रक्षको के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया. महिलाओं का अपमान किया गया और बच्चो तक को घसीटा गया. कुल 172 लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया.
जेल का डर दिखाकर कई लोगों से भारी रिश्वत ली गई. गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्र भी इसमें फंसा दिये गए. फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था. गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री ‘वेदतीर्थ’ ने वहां जाकर गांधी को सारी बात बतायी; पर गांधी किसी भी तरह गौ हत्यारों के विरोध में जाने को तैयार नहीं थे. अतः वे शान्त रहे; पर महामना मदन मोहन मालवीय जी परम गोभक्त थे. उनका हृदय पीड़ा से भर उठा. उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी.
इसके बावजूद आठ अगस्त, 1919 को न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय में चार गोभक्तों को फांसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को कालेपानी की सजा दी गई. इनमें सभी जाति, वर्ग और अवस्था के लोग थे. जो लोग अन्दमान भेजे गये, उनमें से कई भारी उत्पीड़न सहते हुए वहीं मर गए. महानिर्वाणी अखाड़ा, कनखल के महंत रामगिरि जी भी प्रमुख अभियुक्तों में थे; पर वे घटना के बाद गायब हो गये और कभी पुलिस के हाथ नहीं आए.
पुलिस के आतंक से डरकर अधिकांश हिन्दुओं ने गांव छोड़ दिया. अतः अगले आठ वर्ष तक कटारपुर के खेतों में कोई फसल नहीं बोई गई. हरिद्वार के पास कटारपुर में आज भी उन सभी गौ रक्षको का स्मृति स्थल बना हुआ है जिसकी जानकारी अब किसी को नहीं है और वो स्मृति स्थल धीरे धीरे धूल खाता हुए जीर्ण शीर्ण होने की दशा में आ चुका है. आठ फरवरी, 1920 को उदासीन अखाड़ा, कनखल के महंत ब्रह्मदास (45 वर्ष) तथा चौधरी जानकीदास (60 वर्ष) को प्रयाग में; डा. पूर्णप्रसाद (32 वर्ष) को लखनऊ एवं मुक्खा सिंह चौहान (22 वर्ष) को वाराणसी जेल में फांसी दी गई.
चारों वीर ‘गोमाता की जय’ कहकर फांसी पर झूल गए. प्रयाग वालों ने इन गोभक्तों के सम्मान में उस दिन हड़ताल रखी. इस घटना से गोरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी. महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष आठ फरवरी को कटारपुर में ‘गोभक्त बलिदान दिवस’ मनाने की प्रथा शुरू की. वहां स्थित पेड़ और स्मारक आज भी उन वीरों की याद दिलाता है. आज धर्म और अधर्म के उस युद्ध में वीरता से लड़े और अमरता को प्राप्त करने वाले उन सभी गौ भक्त विभूतियों को सुदर्शन परिवार बारम्बार नमन करता है और उनकी यश गाथा को सदा अमर रखने का संकल्प लेता है.