कुछ साल पहले एक विधर्मी ने शंभाजीनगर (औरंगाबाद) की धरती से एक वर्ग विशेष की ताकत की बात की थी , निश्चित रूप से माना जा सकता है की उसको वहां के वीरों का इतिहास ही नहीं पता होगा वर्ण वो ऐसी बचकानी बातें शायद कभी नहीं करता .. उसको शिवाजी के अलावा भी उन सभी वीरों के स्मरण की जरूरत है जिनके नाम का डंका किसी क्षेत्र या वर्ग में नहीं पूरे भारत में बजा था .. हर वो वीर भारत भूमि की थाती है जिसने धर्म ध्वजा उठा कर विधर्म के खिलाफ आवाज उठायी और आपने शौर्य के साथ अभूतपूर्व पराक्रम का परिचय दूर देशों से आये उन विधर्मियो को दिया जो भारत में विधर्म की स्थापना के उद्देश्य और लूट मार करने ही आये थे ..उन सभी ज्ञात अज्ञात वीरों में से एक नाम है सदाशिव राव भाऊ जी का जिनका आज अर्थात 4 अगस्त को पावन जन्म दिवस है.
सदाशिवराव भाऊ का जन्म 4 अगस्त, 1730 को हुआ था। विरासत में उनको बहादुरी और युद्ध कौशल मिले थे. पेशवा बाजीराव प्रथम उनके चाचा था. उनके पिता चिमाजी आप्पा था जिन्होंने पूरे पश्चिमी घाट को पुर्तगालियों से छीन लिया था और मराठा साम्राज्य को कोंकण तक फैला दिया था. कम उम्र में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया. उनके देखरेख चाची काशीबाई ने की जिन्होंने उनके अपने बेटे की तरह पाला-पोसा. बचपन से ही भाऊ की बहादुरी सामने आनी लगी थी. जब बाबूजी नाईक और फतेह सिंह भोंसले कर्नाटक पर कब्जा करने में नाकाम रहे तो भाऊ को कमान सौंपी गई. सिर्फ 16 साल की उम्र में वह कर्नाटक फतह के लिए निकले.
कोल्हापुर के दक्षिण में है अजरा जहां उनका सामना सवनूर के नवाब से हुआ. उन्होंने यहां से अपनी पहली जीत की शुरुआत की और बहादुर भेंडा के किले पर कब्जा किया. इस तरह से 36 परगना मराठा साम्राज्य का हिस्सा बन गया. यहां से भाऊ के विजय का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अनवरत जारी रहा. एक-एक करके उत्तरी कर्नाटक के शहर कित्तूर, गोकक, बागलकोट, बादामी, बासवपटन, नवलगुंड को उन्होंने जीत लिया. 1760 में उदगीर की लड़ाई में उन्होंने हैदराबाद के निजाम को बुरी तरह हराया. निजाम ने अहमदनगर, दौलताबाद, बीजापूर उनको सरेंडर कर दिया. दक्कन में वह अपना झंडा गाड़ चुके थे. इसी बीच अहमद शाह अब्दाली के आने की खबर मराठों तक पहुंची.
अब्दाली से मुकाबले के लिए सरदार सेनापति सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में मराठा सेना पहुंची. उनके बीच में निर्णायक युद्ध 14 जनवरी, 1761 को पानीपत के मैदान में हुआ. इसे ही पानीपत की तीसरी लड़ाई के नाम से जाना गया. दोपहर तक मराठों का पलड़ा भारी था. भाऊ ने खुद अफगानों पर जोरदार हमला किया. मराठा जीत के करीब पहुंच गए थे कि भाग्य ने उनके साथ खेल कर दिया. पेशवा के बेटे विश्वास राव को एक गोली आकर लड़ी जिसने जंग का मंजर बदल दिया. अफगानों ने विश्वासराव की मौत का फायदा उठाते हुए मराठों पर जोरदार हमला कर दिया. इब्राहिम खान गार्दी और जंकोजी सिंधिया के साथ खुद भाऊ को अफगान सेना ने घेर लिया.
यहां पर भाऊ की एक छोटी सी चूक मराठों पर भारी पड़ गई. विश्वास राव की मौत से मराठों का हौसला सुस्त पड़ गया था. जब भाऊ ने देखा कि उनके भतीजे की मौत हो गई तो वह हाथी से उतर गए और युद्ध के मैदान में घुस गए. इसीबीच मराठा सेना को यह गलतफहमी हुई कि भाऊ भी वीरगति को प्राप्त हो गए. इससे मराठा सेना और हतोत्साहित हो गई जो आखिरकार उनकी हार की वजह बनी. एक छोटी सी चूक के कारण भाऊ की बड़ी उपलब्धियों को नजरअंदाज कर दिया गया.
अंतिम सांस तक दुश्मन से लोहा लेने वाले भाऊ के साथ इतिहास ने भी इंसाफ नहीं किया. यह भुला दिया गया कि उन्होंने मराठा सेना को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी. मराठों की हमला करो और छिप जाओ की युद्ध नीति से हटते हुए उन्होंने पैदल सेना और गोलाबारूद को बढ़ाने पर ध्यान दिया. उन्होंने मराठा सेना को आधुनिक बनाने के लिए यूरोपीय सैनिकों को भी भर्ती किया. भले ही इतिहास उनको किसी भी तरह से याद करे लेकिन वह एक सच्चे नायक की तरह लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए. आज सदाशिव राव भाऊ जी के पावन जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें नमन वंदन करता है तथा उनकी यशगाथा को अनंतकाल याद रखने का व लोगों के बीच पहुंचाते रहने का संकल्प लेता है.