कुण्डरा विद्रोह ? यकीनन इसका नाम आपने सुना नहीं होगा और अगर सुना भी होगा तो बहुत कम क्योंकि इस युद्ध के बखान के साथ नकली कलमकारों व चाटुकार इतिहासकारों के एक समूह के उस ढोल की आवाज कम हो जाती जिसमें वो आज़ादी का श्रेय बिना ढाल व तलवार वालों को देते हैं.
दरक जाएगी ऐसे सच्चे इतिहास से उनके द्वारा जबरन लिखी उन किताबों की नींव जिसे उन्होंने किसी के इशारें पर स्वामिभक्ति में लिखा है. दोषी इसमे आज़ादी के वो नकली ठेकेदार भी हैं जिनके हिसाब से उन्होंने ही देश आजाद करवाया बाकी क्रांतिकारी बेवजह थे.
आज़ादी के ठेकेदारों ने बहुत कुछ ऐसा छिपा रखा है जो भारत की जनता को अगर सच-सच बता दिया जाय तो जनमानस में उनके चेहरे काले पड़ जायेंगे और जनमानस में नए आत्मविश्वास के साथ एक नई शक्ति का संचार होगा जो उन्हें कहीं भी अन्याय और अत्याचार से लड़ने की शक्ती देगा.
लेकिन वामपंथ शासित केरल में वामपंथियों द्वारा ही लिखें गये इतिहास में वीरों को सम्मान न देना महज एक भूल नहीं हो सकती है अपितु ये वो साजिश है जो भारत को ही भारत से दूर करने के लिए रची गयी है और कहीं न कहीं वो सफल भी हैं भले ही अल्पकालिक रूप में ही क्यों न सही .
विदित हो कि अन्याय और अत्याचारी यूरोपीय देशों की तरह ब्रिटिश ईस्ट न्डिया कंपनी भी व्यापार को लक्ष्य बनाते हुए पहुँची थी. कंपनी पर पनी ने सन् 1664 में कोष़िक्कोड में व्यापार केन्द्र की स्थापता की. सन् 1684 में उन्होंने तिरुवितांकूर का उस भाग, जो अंचुतेंगु नाम से जाना जाता था, को आट्टिन्गल रानी से ले लिया.
सन् 1695 में वहाँ एक दुर्ग बनवाया. इसी समय उन्होंने तलश्शेरी में भी अपना सिक्का जमाया. एप्रिल 1723 में ब्रिटिश ईस्ट इन्डिया कंपनी और तिरुवितांकूर के बीच संधि हो गई. सन् 1792 में जो श्रीरंगपट्टणम संधि हुई उसके तहत टीपू का मलाबार ब्रिटिशों को प्राप्त हो गया.
सन् 1791 में कंपनी ने कोच्चि के साथ भी संधि कर ली. इस के अनुसार ब्रिटिशों को वार्षिक कर देकर कोच्चि राजा ब्रिटिशों का सामंत बना. 1800 से कोच्चि मद्रास की ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया । 1795 की संधि के अनुसार तिरुवितांकूर ने भी ब्रिटिश प्रभुता स्वीकार की.
अतः एक ब्रिटिश रेसिडेन्ट तिरुवनन्तपुरम में रहते हुए शासन का निरीक्षण किया. ब्रिटिशों को प्रतिवर्ष आठ लाख रुपये तिरुवितांकूर कर रूप में देता था. 1805 में हुई संधि के अनुसार तिरुवितांकूर में यदि कोई गृह कलह या हंगामा होता हो तो उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार भी ब्रिटिशों को प्राप्त हो गया.
इस प्रकार समूचा केरल ब्रिटिशों के अधिकार में आ गया. ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वदेश पर अभिमान करने वालों का विरोध उठना स्वाभाविक था. केरल वर्मा पष़श्शि राजा, वेलुत्तम्पि दलवा और पालियत्तच्छन ने ब्रिटिशों के विरुद्ध हथियार उठाया.
यद्यपि उनका विद्रोह विफल हो गया था तथापि वह जनता में ब्रिटिशों के प्रति दुश्मनी एवं देश भक्ति जगाने में सहायक हुआ ।ब्रिटिशों ने मलाबार में जो कर प्रणाली चलाई थी उसके विरोध में कोट्टयम राजवंश के पष़श्शि राजा ने सशस्त्र विद्रोह किया. ब्रिटिशों ने राजा – रजवाडों से कर वसूल किया.
राजा तो सीधे जनता से कर वसूल करते थे. कोट्टयम में कर वसूली का अधिकार ब्रिटिशों ने पष़श्शि राजा को न देकर उसके मातुल कुरुम्ब्रा रियासत के शासक को दिया था. इस का विरोध करते हुए सन् 1795 में पष़श्शि राजा ने कर वसूली का सारा काम बन्द कर दिया.
सन् 1793 – 1797, 1800 – 1805 वर्षों में वीर पष़श्शि राजा के सैनिकों की ब्रिटिश सैनिकों के साथ मुठभेड़ हुई. पष़श्शि राजा ने वयनाड के वनों में प्रवेश कर युद्ध करना शुरू किया. किन्तु 30 नवम्बर 1805 को ब्रिटिश तोपों ने उन्हें उड़ा दिया. ब्रिटिशों के विरुद्ध उन्होंने प्रतिरक्षा की जो दीवार खड़ी की थी, वह टूट गई.
तिरुवितांकूर के गृह कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करके रेसिडेन्ट मेकाले वेलुत्तम्पि दलवा के विरोध का पात्र बना. यह विरोध खुली लडाई में परिणत हुआ. वेलुत्तम्बि ने कोच्चि के प्रधानमंत्री पालियत्तच्छन के साथ ब्रिटिश सेना पर आक्रमण किया.
वेलुत्तम्पि ने 11 नवंबर 1809 को ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए लोगों का आह्वान करते हुए एक घोषणा निकाली जो ‘कुण्डरा घोषणा’ नाम से जानी जाती है. तो भी ब्रिटिश सेना ने तिरुवितांकूर सेना के शक्ति दुर्गों को एक-एक करके अधीन कर लिया.
अपने को पराजित होते देख वेलुत्तम्पि ने आत्महत्या कर ली. यद्यपि सन् 1812 में वयनाडु के कुरिच्यर और कुरुम्पर नामक आदिवासी वर्गों ने ब्रिटिशों के विरुद्ध हथियार उठाए तथापि विद्रोह को दबाया गया. आज उन सभी ज्ञात और अज्ञात वीर बलिदानियों को इस शौर्य दिवस के दिन बारम्बार नमन और वन्दन है. उनके गौरवशाली इतिहास को सदा-सदा के लिए अमर रखने का सुदर्शन परिवार का संकल्प भी, साथ ही नकली कलमकारों से सवाल भी कि क्यों छिपाया ये गौरवशाली पल राष्ट्र से?