बिहार के गया स्थित पवित्र विष्णु धाम में चल रहे पितृपक्ष मेले का आज ग्यारहवां दिन है। मेले के अवसर पर मोक्ष नगरी गया में श्रद्धालु अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान कर रहे हैं। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि पर सीताकुंड और रामगया में विशेष पिंडदान का आयोजन होता है, जिसमें पितामह और प्रपितामही को बालू के पिंड अर्पित किए जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि यहां बालू से किए गए पिंडदान से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वहीं एकादशी तिथि को पिंडदान केवल सन्यासियों के किए जाते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन माता सीता ने अपने ससुर, राजा दशरथ के लिए बालू से पिंडदान किया था। सीताकुंड वेदी का महत्व इसी घटना से जुड़ा है, जहां माता सीता ने पिंड अर्पित किया था। तभी से इस स्थान का खास धार्मिक महत्व है और प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां आकर अपने पितरों की आत्मा की मुक्ति के लिए पिंडदान करते हैं।
गया मेला और बालू से पिंडदान की परंपरा
गयाजी में चल रहे इस विशाल मेले में लाखों श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। यहां पिंडदान की परंपरा को निभाने के लिए देश के विभिन्न कोनों से आए तीर्थ यात्री पवित्र फल्गु नदी के किनारे स्थित सीताकुंड और रामगया जैसे धार्मिक स्थलों पर इकट्ठा होते हैं। माना जाता है कि बालू से पिंडदान करने से पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कथाओं के अनुसार, वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता गया आए थे। यहां उन्होंने राजा दशरथ का पिंडदान किया। उस समय माता सीता ने बालू से पिंड बनाया और राजा दशरथ को अर्पित किया था, जिसे राजा दशरथ ने ग्रहण किया। इसी कथा से प्रेरित होकर श्रद्धालु आज भी इस विशेष तिथि पर बालू से पिंडदान करते हैं।
सीता मैइया का श्राप
पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान राम और लक्ष्मण वापस लौटे, तो माता सीता ने उन्हें पिंडदान की घटना बताई। जब राम ने साक्षी के रूप में पूछा, तो कई साक्षियों ने झूठ बोला, लेकिन अक्षयवट ने सच बताया। माता सीता ने अक्षयवट को आशीर्वाद दिया और फल्गु नदी को श्राप दिया, जिसके कारण वह अंत:सलिला (भूमिगत नदी) बन गई। इस प्रकार, पितृपक्ष के इस पावन अवसर पर गया में सीताकुंड और रामगया में पिंडदान की परंपरा निभाई जाती है।