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10 सितंबर: बलिदान दिवस पर नमन कीजिए यतीन्द्रनाथ मुखर्जी जी को.... अगर इन्हें ना मिला होता धोखा तो भारत हो जाता 1915 में स्वतंत्र

स्वतंत्रता संग्राम में कई क्रांतिकारी ऐसे थे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया. ऐसा ही एक नाम था यतीन्द्रनाथ मुखर्जी. जो बाघा जतिन के नाम से जाने जाते थे.

Sumant Kashyap
  • Sep 10 2024 8:04AM

स्वतंत्रता संग्राम में कई क्रांतिकारी ऐसे थे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया. ऐसा ही एक नाम था यतीन्द्रनाथ मुखर्जी. जो बाघा जतिन के नाम से जाने जाते थे. कहते हैं कि भारत को अंग्रेजों से  स्वतंत्र कराने के लिए बाघा जतिन ने एक ऐसी योजना बनाई थी कि भारत 1915 में ही स्वतंत्र हो गया होता. अगर ऐसा होता हो तो शायद देश की  स्वतंत्रता का इतिहास भी बिल्कुल अलग होता. बाघा किसी भी अंग्रेज को अगर अकेला देखते तो उसकी पिटाई कर देते थे. 

कहा जाता है कि एक बार उन्होंने एक साथ आठ फिरंगियों को पीट डाला था.10 सितंबर 1915 को भारत की स्वतंत्रता के इस महान् सिपाही ने अस्पताल में सदा के लिए आंखें मूंद लीं. वहीं, यतीन्द्रनाथ मुखर्जी जी के चरणों में आज सुदर्शन न्यूज बारम्बार नमन और वंदन करता है साथ ही उनके बलिदान की गौरव गाथा को दुनिया के आगे समय समय पर लाने के संकल्प को भी दोहराता है. 

जानकारी के लिए बता दें कि यतीन्द्रनाथ मुखर्जी बंगला के नादिया जिले में पैदा हुए थे, जो अब बांग्लादेश में है. पिता की मौत के बाद उनकी परवरिश उनकी मां शरतशशि ने की थी. खेलकूद में उनकी बहुत रूचि थी. यही वजह थी कि उनका शरीर बलवान था. बता दें कि बचपन में अपने मामा के साथ उनकी मुलाकात अक्सर रवीन्द्र नाथ टैगोर से होती थी. बाघा जतिन टैगोर से बहुत प्रभावित थे. वे नाटकों में भाग लिया करते थे. एक बार किसी भारतीय का अपमान करने पर उन्होंने एक साथ चार-पांच अंग्रेजों की पिटाई कर दी थी.

दरअसल, उसके बाद उन्होंने कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया. तभी वे स्वामी विवेकानंद जी के संपर्क में आए. इसी दौरान स्वामी जी ने उन्हें कुश्ती के दाव पेच सीखने के लिए एक अखाड़े में भेज दिया. वहीं से उनके मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छा प्रबल हुई. वर्ष 1899 में ने बैरिस्टर पिंगले के सचिव बनकर मुजफ्फरपुर जा पहुंचे.

पिंगले वकील होने के साथ ही इतिहासकार भी था. उसी के साथ रहकर बाघा जतिन को लगा कि भारतीयों की अपनी एक आर्मी होनी चाहिए. बस तभी से वो इस आर्मी के निर्माण में जुट गए. शादी के बाद जतिन के बड़े बेटे की मौत हो गई. वे काफी तनाव में थे. जिस वजह से वो हरिद्वार चले गए. जब वह लौट कर अपने गांव पहुंचे तो वहां एक तेंदुए ने आतंक मचा रखा था.

बता दें कि जतिन उसकी तलाश में निकल पड़े और उनका सामना जंगल में एक टाइगर से हुआ. जिसे उन्होंने अपनी खुखरी से मार डाला. वहीं से उनका नाम बाघा जतिन पड़ा. वर्ष 1900 में क्रांतिकारियों के एक संगठन का निर्माण हुआ. जिसमें बाघा जतिन की अहम भूमिका थी. बता दें कि बंगाल, उड़ीसा और बिहार में संगठन का विस्तार किया गया. इसी दौरान वर्ष 1905 में ब्रिटेन के राजकुमार कलकत्ता में थे. उनके स्वागत समारोह में जतिन ने महिलाओं के अपमान से नाराज होकर कई अंग्रेजों की पिटाई कर दी. 

इस घटना से क्रांतिकारियों के मन में बाघा जतिन का सम्मान और बढ़ गया. इस घटना के बाद बाघा जतिन ने वारीन्द्र घोष की मदद से देवघर में एक बम फैक्ट्री की स्थापना की. फिर वे तीन साल तक दार्जीलिंग में रहे. एक दिन वहीं के सिलीगुड़ी स्टेशन पर उनका सामना अंग्रेज सैनिकों से हो गया. और गुस्से में आकर जतिन ने उस टुकड़ी के कैप्टन मर्फी समेत आठ फिरंगियों की जमकर पिटाई की.

 वहीं, इसके अलीपुर बम कांड में भी जतिन का नाम आया. बाघा जतिन ने सर डेनियल की मदद से कई छात्रों को विदेश पढ़ने भेजा. वहां उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया गया. अप्रवासी भारतीय से सहायता ली गई. ऐसे ही पांडुरंग एम बापट और हेमदास ने एक रूसी क्रांतिकारी से बम बनाना सीखा. इसी बीच जतिन को गिरफ्तार किया गया. 

 वहीं, तत्कालीन फिरंगी सरकार क्रांतिकारियों से परेशान थी. इसलिए 1912 में राजधानी कोलकाता से बदलकर दिल्ली बनाई गई. सीक्रेट सोसायटी उन दिनों भारतीयों पर जुल्म ढाने वालों का खात्मा कर रही थी. तबी एक क्रांतिकारी पकड़ा गया और उसने जतिन के नाम का खुलासा कर दिया. जतिन को एक अंग्रेज अफसर की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया कर लिया गया.

उसी बीच जेल में बंद बाघा जतिन ने अन्य कैदियों के साथ मिलकर एक नई योजना बनाई. देश को स्वतंत्र करवाने के लिए यह अब तक का सबसे बड़ा प्लान था. बता दें कि इतिहास में इस योजना को जर्मन प्लॉट या हिंदू-जर्मन कांस्पिरेसी के नाम से जाना गय़ा. अगर वो प्लान कामयाब हो जाता तो हमारा देश को 1915 में ही  स्वतंत्र हो जाता. 

उसी प्लान के अनुसार, फरवरी 1915 में 1857 की तरह क्रांति करने की योजना थी. मगर इसी दौरान पंजाब 23वीं कैवलरी के एक विद्रोही सैनिक के भाई कृपाल सिंह ने क्रांतिकारियों को धोखा दिया और उनकी सारी योजना अंग्रेजी सरकार तक पहुंचा दी. सारे प्लान पर पानी फिर गया.

इधर, अंग्रेजी अफसरों को जतिन और उनके साथियों की ख़बर लग चुकी थी. वे कप्टिपाड़ा गांव में छिपे थे. बाघा का आखिरी वक्त आ गया था. उन्हें चारों तरफ से घेर लिया गया. उनका साथी चित्तप्रिय उस वक्त उनके साथ था. दोनों तरफ़ से गोलियां चलने लगी. इसी बीच जतिन का शरीर गोलियों से छलनी हो गया. 

बलिदान होने से पहले जतिन ने बयान में कहा कि गोली उन्होंने और चित्तप्रिय ने चलाई थी. वहां मौजूद बाकी अन्य लोग निर्दोष हैं. इसके बाद बालासोर अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया. वहीं, आज सुदर्शन न्यूज  यतीन्द्रनाथ मुखर्जी जी  बारम्बार नमन और वंदन करता है साथ ही उनके बलिदान की गौरव गाथा को दुनिया के आगे समय समय पर लाने के संकल्प को भी दोहराता है.

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