महाकुंभ कल से शुरू होने वाला है। प्रयागराज का संगम तट श्रद्धालुओं के स्वागत के लिए पूरी तरह से तैयार है। यह तट गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का प्रतीक है, जो न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि भारत की प्राचीन परंपरा और विरासत का साक्षी भी है। यहां की सांस्कृतिक एकता और भाईचारे की भावना को देखा जा सकता है, जहाँ हर व्यक्ति का आदान-प्रदान और मिलन होता है।
संगम तट पर स्नान की परंपरा
संगम तट पर स्नान की परंपरा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह समाज के एकजुट होने की संस्कृति का प्रतीक है। यहां पर लोग अपने धर्म, जाति और पंथ से परे एकजुट होते हैं, और 'हर हर गंगे' के मंत्र के साथ एकता का संदेश फैलाते हैं। यह तट सभ्यताओं के मिलन का स्थल है, जहां मानवता की सशक्त आवाज गूंजती है।
महाकुंभ और अमृत की खोज
महाकुंभ का आयोजन इस अमृत की खोज का परिणाम है, जो प्राचीन काल में सागर मंथन के माध्यम से किया गया था। सदियों पहले मंदार पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर सागर मंथन की प्रक्रिया शुरू की गई थी। भगवान विष्णु ने मंथन के दौरान मंदार पर्वत को स्थिर करने के लिए कूर्म अवतार लिया था।
सागर मंथन का संघर्ष
सागर मंथन के दौरान देवता और असुर दोनों मिलकर वासुकी नाग की रस्सी को खींच रहे थे। इस प्रक्रिया में कई दिन तक मंदार पर्वत घूमता रहा, और अंततः सागर तल से एक तेज गंधयुक्त ज्वार उठा। इस दौरान संसार भर में अंधकार छा गया और विष का प्रभाव शुरू हो गया। सभी मंथनकर्ता विष के प्रभाव से जलने लगे और प्रकृति भी खतरे में आ गई।
हलाहल विष का उभरना और शिवजी की भूमिका
सागर मंथन से निकला पहला रत्न हलाहल विष था, जिसे ग्रहण करने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। अंत में महादेव शिव ने इस विष को अपने कंठ में रोक लिया। उनके इस विषपान से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। महादेव ने विष को पीकर संसार की रक्षा की और सभी जीवों को इस प्रलय से बचाया। जब महादेव विषपान कर रहे थे, तब उसकी कुछ बूंदें जो धरती पर गिरीं उन्हें सांप-बिच्छू और ऐसे ही अन्य जीवों ने पी लिया। पुराण कथाएं कहती हैं कि ये जीव महादेव का कार्य सरल बनाने आए थे। इसलिए उन्होंने भी उनके समान जहर धारण किया और उस दिन से विषैले हो गए।
शिवजी का जलाभिषेक और परंपरा
विष के प्रभाव को शांत करने के लिए महादेव को कई बार जल से अभिषेक किया गया। उन्हें शीतल औषधियों जैसे भांग, धतूरा, मदार, दूध और घी से स्नान कराया गया। इस परंपरा के चलते शिवजी के जलाभिषेक की परंपरा शुरू हुई, जो आज भी धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा है। उनके इस प्रयास से न केवल अमृत की खोज सफल हुई, बल्कि संसार भी विनाश से बचा। सागर मंथन के बाद, एक ही आवाज 'हर-हर महादेव' के साथ गूंज उठी, जो आज भी शिव भक्तों के दिलों में गूंजती है। महाकुंभ और संगम तट पर यही ध्वनि एकता और सामूहिकता का प्रतीक बनकर हर श्रद्धालु के हृदय में समाहित होती है।
कालकूट विष, चंद्रमा, हाथी और घोड़े
पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन से सबसे पहले हलाहल या कालकूट विष निकला। फिर सूर्य और चंद्रमा नक्षत्र दोनों ही एक साथ निकले। उच्चैश्रवा नाम का सफेद तेज दौड़ने वाला घोड़ा भी प्राप्त हुआ। इसी मंथन से पद्म यानि दिव्य कमल, फिर स्वर्ण और कौस्तुभ मणि प्राप्त हुई। फिर वारुणि नाम की मदिरा, इसके बाद लक्ष्मी के साथ सिद्धि और उन्हीं के साथ सौभाग्य सूचक कुमकुम भी मंथन से बाहर निकला। दिव्य सफेद हाथी, जिसके चार दांत थे और पीठ पर स्वर्ण का हौदा शोभायमान था ऐसा ऐरावत भी प्रकट हुआ। सबसे आखिरी में धन्वन्तरि देव अमृत कुंभ लेकर प्रकट हुए।
हालांकि मंथन में और भी रत्न प्राप्त हुए, इनमें से कहा जाता है कि कल्पवृक्ष नाम का ऐसा पेड़ भी सागर मंथन से निकला, जो हर कल्पना को साकार कर देता था। इसी मंथन से पारिजात नाम के पुष्प का पेड़ भी प्राप्त हुआ. देवी लक्ष्मी से ठीक पहले उनकी बड़ी बहन अलक्ष्मी भी मंथन से निकलीं, जो कि देवी लक्ष्मी के उलट दरिद्रता की देवी हैं। इसी मंथन से रंभा नाम की एक अप्सरा भी निकली, जिसे स्वर्ग में स्थान मिला और यह इंद्र की सभा में सबसे सुंदर अप्सरा थी। वह आगे चलकर कई पौराणिक कथाओं में मेनका और उर्वशी की ही तरह मुख्य किरदार के तौर पर नायिका बनकर उभरती है।
इसके अलावा, समुद्र मंथन से क्या-क्या मिला
इसे लेकर एक प्रचलित छंद भी है।
श्री रंभा विष वारुणी, अमिय शंख गजराज,
धन्वन्तरि, धनु, धेनु, मणि, चंद्रमा, वाजि
इसमें श्री यानी लक्ष्मी, रंभा यानी अप्सरा, हलाहल विष, वारुणी मदिरा, अमिय यानी अमृत, शंख (पांचजन्य) गजराज (ऐरावत), धन्वन्तरि (आयुर्वेद के जनक), धनु (विष्णु का सारंग धनुष) धेनु (कामधेनु गाय), मणि (कौस्तुभ मणि), चंद्रमा, वाजि यानी घोड़ा (उच्चैश्रवा) प्राप्त हुए थे।