ये भारत की तथाकथित सेकुलर राजनीति भले ही कुछ करवाये अन्यथा वीर वीरांगनाओं ने अपना कर्तव्य निभा ही दिया था.. नारियों के लिए जिस देश मे आदर्श बना कर टेरेसा को प्रस्तुत किया जाता रहा उसमें रानी चेन्नम्मा का नाम भी शामिल हो सकता था लेकिन चाटुकार इतिहासकार व नकली कलमकारों ने जो कुछ किया उसकी क्षमा शायद ही समय के पास हो ..
आज बलिदान दिवस है उस वीरांगना का जिन्होंने 2 मोर्चों पर एक साथ जंग लड़ी एक थे बाहरी अंग्रेज और दूसरे थे घर के अंदर के ही गद्दार.. ये ठीक आज के समय जैसा ही है जो हमारे सैनिको और पुलिस के जवानों के साथ हो रहा है.यकीनन अगर रानी चेन्नम्मा का इतिहास छिपाया नही गया होता तो आज बहुत कुछ सीखने को मिलता उनके जीवन से क्योंकि हालात फिर उसी तरह से करवट ले रहे हैं.
उत्तर भारत में जो स्थान स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है, कर्नाटक में वही स्थान कित्तूर की रानी चेन्नम्मा का है। रानी चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही ब्रिटिश सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेज़ों की सेना को उनके सामने दो बार मुँह की खानी पड़ी थी. रानी चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। इस सुंदर बालिका का जन्म 1778 ई. में दक्षिण के काकातीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भाँति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई।
रानी चेन्नमा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहाँ हीरे-जवाहरात के बाज़ार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई।
कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी चल बसे। तब उनकी बड़ी रानी रुद्रम्मा का पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज गद्दी पर बैठा और चेन्नम्मा के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम चेन्नम्मा देखेगी।
शिवलिंग रुद्रसर्ज की भी जल्दी मृत्यु हो गई। अंग्रेज़ों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे।
आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेज़ों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूँद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता।
रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने बस मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात क़िले के फाटक खुले और दो हज़ार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेज़ों की सेना पर टूट पड़ी।
घबरा कर थैकरे भाग गया। दो देशद्रोही को रानी चेन्नम्मा ने तलवार के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके।
छोटे से राज्य के लोग काफ़ी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेज़ों ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फाँसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई।
आज के ही दिन अर्थात 21 फरवरी, 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया.भारतीय नारी के शौर्य व् गौरवमय इतिहास को दफ़न करने की घोर साज़िश के कर्ताधर्ता कुछ चाटुकार इतिहासकारों की अक्षम्य भूल के कारण भुला दी गईं शौर्य, शक्ति, साहस , समर्पण की जीवित प्रतिमूर्ति कित्तूर की रानी चेनम्मा को नमन कीजिये आज..
आज शौर्य की उस महान प्रतीक रानी के बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार उनको बारंबार नमन करता है और उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प भी दोहराता है.. साथ ही हिंदुओं के हत्यारे टीपू सुल्तान की जयंती मनाती उस राजनीति से सवाल करता है कि कर्नाटक में जन्मी देश की नारी शक्ति रूपी इस अमूल्य धरोहर की जयंती या बलिदान दिवस उनको क्यों नही है याद ..