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10 अक्टूबर : आज के ही दिन 1910 में वाराणसी में मदन मोहन मालवीय जी की अध्यक्षता में किया गया था प्रथम अखिल भारतीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन

अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी की तात्कालिक समस्याओं पर विचार करने के लिए देश भर के हिंदी के साहित्यकारों और प्रेमियों के प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने की थी

Sumant Kashyap
  • Oct 10 2024 7:35AM

हिंदी साहित्य सम्मेलन ने ही सर्वप्रथम हिंदी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी रचनाओं पर पुरस्कारों आदि की योजना चलाई. हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना 1 मई, 1910 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में हुई. 1 मई सन् 1910 को काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी की एक बैठक में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक आयोजन करने का निश्चय किया गया. इसी के निश्चयानुसार 10 अक्टूबर, 1910 को वाराणसी में ही मदनमोहन मालवीय जी के सभापतित्व में पहला सम्मेलन हुआ.

सम्मेलन के द्वारा हिंदी की अनेक उच्च कोटि की पाठ्य एवं साहित्यिक पुस्तकों, पारिभाषिक शब्दकोशों एवं संदर्भग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है जिनकी संख्या डेढ़-दो सौ के करीब है. सम्मेलन के हिंदी संग्रहालय में हिंदी की हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी संग्रह है. इतिहास के विद्वान् मेजर वामनदास वसु की बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह भी सम्मेलन के संग्रहालय में है, जिसमें पांच हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें संगृहीत हैं.

अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी की तात्कालिक समस्याओं पर विचार करने के लिए देश भर के हिंदी के साहित्यकारों और प्रेमियों के प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने की थी. इस अधिवेशन में यह निश्चय हुआ कि इस प्रकार का हिंदी के साहित्यकारों का सम्मेलन प्रतिवर्ष किया जाए, जिससे हिंदी की उन्नति के प्रयत्नों के साथ साथ उसकी कठिनाइयों को दूर करने का भी उपाय किया जाए. सम्मेलन ने इस दिशा में अनेक उपयोगी कार्य किए. उसने अपने वार्षिक अधिवेशनों में जनता और शासन से हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के संबंध में विविध प्रस्ताव पारित किए और हिंदी के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के भी उपाय किए. उसने हिंदी की अनेक परीक्षाएं चलाई, जिसने देश के भिन्न भिन्न अंचलों में हिंदी का प्रचार और प्रसार हुआ.

हिंदी साहित्य सम्मेलन की शाखाएं देश के निम्नलिखित राज्यों में हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा बंगाल. अहिंदीभाषी प्रदेशों में कार्य करने के लिए इसकी एक शाखा वर्धा में भी है, जिसका नाम "राष्ट्रभाषा प्रचार समिति" है. इसके कार्यालय महाराष्ट्र, बंबई, गुजरात, भाग्यनगर, उत्कल, बंगाल तथा असम में हैं. इन दोनों संस्थाओं द्वारा हिंदी की जो विविध परीक्षाएं ली जाती हैं, उनमें देश और विदेश के दो लाख से अधिक परीक्षार्थी प्रतिवर्ष लगभग 700 परीक्षाकेंद्रों में भाग लेते हैं. ये प्रवेशिका, प्रथमा, मध्यमा तथा उत्तमा कहलाती हैं. हिंदी साहित्य विषय के अतिरिक्त आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, राजनीति, कृषि, एवं शिक्षाशास्त्र में उपाधिपरीक्षाएं सम्मेलन द्वारा ली जाती हैं. हिंदी साहित्य सम्मेलन और उसकी प्रादेशिक शाखाओं द्वारा हिंदी का जो सार्वदेशिक प्रचार हुआ, उसके परिणामस्वरूप देश की स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ साथ हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने का आंदोलन तीव्रतर हुआ और फिर स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद दिया गया.

अपने स्थापना वर्ष (सन् 1910) से ही प्रत्येक वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन हिन्दी के उत्कर्ष से संबंधित प्रस्तावों के क्रियान्वयन हेतु सम्मेलन आयोजित करने लगा, जिसे बाद में 'अधिवेशन' नाम दिया गया. सम्मेलन के इस अधिवेशन की गौरवमयी परंपरा 1910 से वर्तमान तक निरंतर चलती आ रही है, जिसमें काशी, प्रयाग, कलकत्ता, भागलपुर, लखनऊ, जबलपुर, इंदौर, बंबई, लाहौर, कानपुर, दिल्ली, देहरादून, वृंदावन, भरतपुर, मुजफ्फरपुर, गोरखपुर, झाँसी, ग्वालियर, नागपुर, मद्रास, शिमला, पूना, अबोहर, हरिद्वार, जयपुर, उदयपुर, करांची, मेरठ, भाग्यनगर और कोटा आदि में अधिवेशन हुए.

जानकारी के लिए बता दें कि 12 से 13 मार्च, 2022 तक उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का दो दिवसीय 73वाँ वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया गया. उल्लेखनीय है कि सम्मेलन के 111 साल के इतिहास में अब तक 7 बार प्रयागराज में अधिवेशन किया गया है. यहां अंतिम बार अधिवेशन 1994 में किया गया था. इस अधिवेशन में साहित्य और राष्ट्रभाषा परिषद पर दो सत्रों में परिसंवाद किया गया. साहित्य परिषद के तहत प्रथम सत्र ‘स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्य की भूमिका’ पर विभिन्न साहित्यकारों ने अपने-अपने विचार रखे. द्वितीय सत्र में राष्ट्रभाषा परिषद के तहत ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति और राष्ट्रभाषा’ विषय पर विमर्श किया गया. देशभर से आए विद्वानों ने हिन्दी भाषा को रोज़गार से जोड़ने पर जोर देते हुए कहा कि हिन्दी के पढ़े व्यक्ति को रोज़गार मिलेगा तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी.

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