भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। लेकिन उनके संघर्ष, विचारधारा और अंतर्राष्ट्रीय संवादों में कई ऐसे गुमनाम सिपाही भी थे, जिन्होंने पर्दे के पीछे से उनके महान कार्यों को आकार दिया। ऐसे ही एक व्यक्ति थे नेताजी के परम विश्वासपात्र और उनके दुभाषिए (ट्रांसलेटर) पसूई सवउरो, जिनका सोमवार (14 अप्रैल 2025) को दुखद देहांत हो गया है। उनकी उम्र लगभग 100 वर्ष थी। पसूई सवउरो जी के कई पारिवारिक सदस्य सुदर्शन न्यूज मुख्यालय मे कार्यरत हैं। उनके गाँव को लगभग 5 वर्ष पहले हमारे प्रधान संपादक डॉक्टर सुरेश चव्हाणके जी ने गोद भी लिया था। हम सभी आज दिवंगत महान आत्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
दिवंगत पसूई सवउरो जी मूलतः नागालैंड के फेक जिले मे गाँव रुजाजो के रहने वाले थे। यह गाँव म्यांमार की सीमा पर मौजूद है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब ब्रिटिश फौजें कई अलग-अलग देशों से उलझी हुई थीं तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी ने उन पर नागालैंड के रास्ते से ही आक्रमण किया था। उस दौरान पूर्वोत्तर भारत की भाषाओं से तालमेल बिठाने मे आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को काफी समस्या या रही थी। तब पसूई सवउरो जी उनकी मदद के लिए आगे आए थे।
तात्कालिक तौर पर यह बेहद जोखिम भरा काम था। ब्रिटिश सरकार की नजर मे यह काम सत्ता के खिलाफ बगावत था जिसकी तब सजा मौत थी। रुजाजो गाँव के तमाम निवासियों ने इस रिस्क को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज को हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध कारवाई। इसमें रहना, खाना के साथ दुर्गम रास्तों से सैनिकों को युद्ध क्षेत्र मे ले जाना तक शामिल था। कई युवा तो खुद भी अंग्रेजों से लड़ने निकल पड़े थे।
आजाद हिन्द फौज के हमले से ब्रिटिश सत्ता के पैर उखड़ गए थे। आखिरकार देश को साल 1947 मे आजादी मिली। इस आजादी मे पसूई सवउरो जी का बहुत बड़ा योगदान रहा। देश को स्वतंत्र करवाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी वो अब तक राष्ट्र की सेवा मे अंतिम साँस तक लगे रहे। दिवंगत आत्मा की 2 पड़पोतियाँ और एक अन्य सदस्य इस समय सुदर्शन न्यूज मुख्यालय नोएडा मे कार्यरत है। इसी गाँव को धर्मयोद्धा डॉक्टर सुरेश चव्हाणके जी ने गोद भी लिया था।
कहा जाता है कि नेताजी बहुत ही सजग और सूक्ष्म दृष्टि वाले नेता थे। वे हर व्यक्ति को उसकी योग्यता और ईमानदारी से पहचानते थे। दुभाषिए पसूई सवउरो जी को उन्होंने केवल इसलिए नहीं चुना था कि वे कई भाषाओं में दक्ष थे, बल्कि इसलिए भी कि उनमें एक सच्चा राष्ट्रभक्त छिपा था।पसूई सवउरो की भूमिका केवल संवाद की नहीं थी। वे एक ऐसे सच्चे देशभक्त थे जिन्होंने अपने निजी जीवन को पीछे छोड़ दिया था।
उन्होंने अपने परिवार, आराम और जीवन की सहजता को त्याग कर देश के लिए नेताजी का साथ चुना। वे किसी बड़े पद या पुरस्कार की चाह नहीं रखते थे। उन्होंने सुभाष बाबू की विचारधारा को ही अपना जीवन बना लिया था। उनकी मृत्यु के बाद यह स्पष्ट हो गया कि भारत ने एक ऐसा रत्न खो दिया है, जिसकी चमक हमेशा नेताजी के इतिहास के पन्नों में झलकती रहेगी। उन्होंने कभी प्रसिद्धि नहीं चाही, लेकिन उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
हालांकि वे हमारे बीच अब नहीं हैं, लेकिन उनके योगदान को याद रखना हमारी जिम्मेदारी है। भारत को आज़ादी दिलाने के लिए केवल लड़ाइयाँ नहीं लड़ी गईं, भाषाओं के पुल भी बनाए गए। और उन पुलों के निर्माता जैसे व्यक्ति अमर होते हैं। उनके परिवार ने एक ऐसे व्यक्ति को हमेशा के लिए विदा किया है, जो देश के लिए एक चलती-फिरती विरासत था। उनके त्याग, सेवा और देशभक्ति की गाथा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। समाज को चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को केवल श्रद्धांजलि न दे, बल्कि उनके जीवन से सीख ले। शिक्षा संस्थानों में, शोध कार्यों में, और इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में ऐसे अनसुने नायकों को भी स्थान मिलना चाहिए।