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19 दिसंबर: बलिदान दिवस हुतात्मा रामप्रसाद बिस्मिल जी... भुने चने खा कर तब लड़ी युद्ध जब कुछ के कपड़े जाते थे विदेश धुलने

अमर बलिदानी राम प्रसाद बिस्मिल जी को उनके बलिदान दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनका गौरवगान सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है.

Sumant Kashyap
  • Dec 19 2024 7:33AM

ये वो इतिहास है जिसे आज तक आप को कभी बताया नहीं गया था. उस कलम का दोष है ये जिसने नीलाम मन से और बिकी स्याही से अंग्रेज अफसरों के नामों के आगे आज तक सर लगाया है और देश के क्रांतिकारियों को अपराधी तक लिखा आज़ाद भारत में .. इतना ही नहीं , उन्होंने देश को ये जानने ही नहीं दिया की उनके लिए सच्चा बलिदान किस ने दिया और किस ने दिया है देश को अनंत काल तक पीड़ा पहुंचाने वाला धोखा .. काकोरी का वो काण्ड जिसने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों को सामूहिक रूप से फांसी दिलवा कर क्रांतिकारियों को सबसे बड़ी चोट दी थी उस काण्ड में दोषी अंग्रेजो से ज्यादा जो थे उनके नाम को छिपाया गया.

इस सूर्य की लालिमा में उन असंख्य देशभक्तों का लहू भी शामिल था, जिन्होंने अपना सर्वस्व क्रान्ति की बलिवेदी पर न्योछावर कर दिया. इन देशभक्तों में रामप्रसाद बिस्मिल जी का नाम अग्रगण्य है. संगठनकर्ता, शायर और क्रान्तिकारी के रूप में बिस्मिल जी का योगदान अतुलनीय है. ‘काकोरी केस’ में बिस्मिल जी को दोषी पाकर फिरंगियों ने उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था. इनका बलिदान ऐसी गाथा है, जिसे कोई भी देशभक्त नागरिक गर्व से बार-बार पढ़ना चाहेगा. इन्हें स्मरण करते समय रामप्रसाद बिस्मिल जी की ये पंक्तियां मन में गूंजती रहती हैंदृ सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू ए क़ातिल में है.

रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम मुरलीधर जी था जो शाहजहांपुर की नगरपालिका में कर्मचारी थे. उनकी माता का नाम मूलारानी जी था. घर की सीमित आय के कारण उनका बचपन सामान्य सा ही गुजरा. उनकी पढ़ाई में कम खेल में अधिक रुचि थी. अपने शौक के लिए पैसे चुराना, सिगरेट और भांग की लत जैसी आदतों को देख कर किसी को उम्मीद नहीं थी के वे क्या बनने वाले हैं.

प्रिवी कौन्सिल से अपील रद्द होने के बाद फांसी की नई तिथि 19  दिसंबर 1927 की सूचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल जी को दे दी गई थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा, जिसे उन्होंने निज जीवन की एक छटा नाम दिया था,पूरी करने में दिन-रात डटे रहे,एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये. उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी तभी तो उन्होंने आत्मकथा में एक जगह यह शेर लिखा था – “क्या हि लज्जत है कि रंग-रंग से ये आती है सदा,… दम न ले तलवार जब तक जान ‘बिस्मिल’ में रहे.”

उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी,और उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वे क्या-क्या करते? बिस्मिल जी का जीवन इतना पवित्र था कि जेल के सभी कर्मचारी उनकी बड़ी इज्जत करते थे ऐसी स्थिति में यदि वे अपने लेख व कवितायें जेल से बाहर भेजते भी रहे हों तो उन्हें इसकी सुविधा अवश्य ही जेल के उन कर्मचारियों ने उपलब्ध करायी होगी,इसमें सन्देह करने की कोई गुन्जाइश नही. 

अब यह आत्मकथा किसके पास पहले पहुंची और किसके पास बाद में, इस पर बहस करना  भी समाज के वामपंथी तत्वों द्वारा कहीं न कहीं सांप्रदायिकता अथवा अति राष्ट्रवाद का मुद्दा घोषित कर दिया जाएगा. लेनिन मार्क्स की मूर्तियों के लिए लड़ने वाले वामपंथियों की दृष्टि में बिस्मिल जी की जीवनी संभवत कुछ खास महत्व नहीं रखती.

रामप्रसाद बिस्मिल जी की राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय हुए कई नेताओं और क्रांतिकारियों से मिले लेकिन उनकी ऊंची सोच और ज्ञान से कोई भी प्रभावित हुए बना नहीं रहा जिसमें कविता और शायरी का पुट था. 1915 में गदर पार्टी के सदस्य भाई परमानंद की फांसी खबर ने बिल्मिल जी को बहुत अधिक भावुक कर दिया जिसके बाद उन्होंने क्रांतिकारियों की राह पकड़ने की ठान ली.

बिस्मिल जी ने औरैया के क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दिक्षित जी के साथ पैदल सैनिकों के साथ घुड़सवारों और हथियारों से लैस होकर मातृदेवी संगठन के तहत अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया जिसमें 50 अंग्रेज सैनिक मारे गए थे. इस दौरान बिस्मिल जी की संदेश और प्रसिद्ध मैनपुरी की प्रतिज्ञा नाम की कविता बहुत प्रसिद्ध हुई. एक मुखबिर की गद्दरी की वजह से 35 क्रांतिकारी बलिदान हो गए और बिस्मिल जी को दो साल के लिए भूमिगत होना पड़ा पर वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आए. हां इस दौरान उन्होंने कविताएं और कई गंभीर किताबें भी लिखीं.

क्रांतिकारी गतिविधियों को चलाने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल जी के संगठन ने अंग्रेजों के साथ देने वालों को लूट कर छोटी मोटी डकैतियां डाली, लेकिन इससे उनका काम तो नहीं हुआ उल्टे लोगों में पार्टी की छवि जरूर खराब होने लगी. इस समय तक भगत सिंह जी, चंद्रशेखर आजाद जी जैसे कई बड़े क्रांतिकारी बिस्मिल जी के नेतृत्व में आ चुके थे. इसी समय पर काकोरी डकैती की योजना बनाई गई. अब तक बिस्मिल जी अपने लेखन से, संगठनात्मक क्षमता, नेतृत्व और नियोजनकर्ता के तौर पर देश के जनमानस तक अपनी छाप छोड़ चुके थे.  

अपने जीवन को पल पल आग में तपा कर राष्ट्र को आज़ादी दिलाने वाले महायोद्धा , अमर बलिदानी राम प्रसाद बिस्मिल जी को उनके बलिदान दिवस पर बारम्बार नमन करते हुए उनका गौरवगान सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है .

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