इस वीरांगना की आहुति को जान कर वो कौन होगा जो बिना खड्ग बिना ढाल वाले गाने को गायेगा? कैसे मान लें कि आज़ादी किसी एक ही देन है तथा बाकी सब खामोश रहे होंगे. ये वो प्रमाण हैं जो आँखों में आंसू के साथ भुजाओं में एक अजीब सी हलचल पैदा करते हैं और आज समाज में बचा शौर्य और साहस इन्ही के खून से सींचे गए शौर्य, त्याग. स्वाभिमान तथा बलिदान की देन है. ये उस समय की बात है जब प्रथम स्वाधीनता संघर्ष 1857 में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई, पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा.
भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे. उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया. उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नए सिरे से मोर्चा लें. मैना नाना साहब की दत्तक पुत्री थी. वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी. नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें ? नए स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कैसी कठिनाइयां आएं.
अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था, पर महल में छोड़ना भी कठिन था. ऐसे में मैना ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की. नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं. फिर मैना तो एक कन्या थी. अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था, पर मैना साहसी लड़की थी. उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था. उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं. मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है.
अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया. पर कुछ दिन बाद ही अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा. इस पर मैना बाहर आ गयी. सेनापति हे नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था. अतः उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता हो गयी थी. मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था. अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया.
पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी. जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, वह वहां से गायब हो गयी. सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया. सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी. अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया, पर मैना जीवित थी. रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ?
उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं. ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया. नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित था. जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था. उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है. अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही. यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई.
अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया. निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया. आज ही अर्थात तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी. इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया. ऐसी वीरांगना के चरणों में आज सुदर्शन न्यूज बारम्बार नमन और वंदन करता है साथ ही उनके बलिदान की गौरव गाथा को दुनिया के आगे समय समय पर लाने के संकल्प को भी दोहराता है .
देवी मैना अमर रहें.