आज़ादी के ठेकेदारों ने जिस वीर के बारें में नहीं बताया होगा, बिना खड्ग बिना ढाल के आज़ादी दिलाने की जिम्मेदारी लेने वालों ने जिसे हर पल छिपाने के साथ ही सदा के लिए मिटाने की कोशिश की, उन लाखों सशत्र क्रांतिवीरों में से एक थे लौहपुरुष 'भारत रत्न' सरदार वल्लभ भाई पटेल जी. भारत के इतिहास को विकृत करने वाले चाटुकार इतिहासकार अगर लौहपुरुष 'भारत रत्न' सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का सच दिखाते तो आज इतिहास काली स्याही का नहीं बल्कि स्वर्णिम रंग में होता. आज लौहपुरुष 'भारत रत्न' सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.
लौहपुरुष 'भारत रत्न' सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मजंयती 31 अक्टूबर, 1875 को नडियाद, गुजरात में एक लेवा पटेल पाटीदार जाति में हुआ था. बता दें कि पटले जी झवेरभाई पटेल जी एवं लाडबा देवी जी की चौथी संतान थे. सोमाभाई जी, नरसीभाई जी और विट्टलभाई जी उनके अग्रज थे. उनकी शिक्षा मुख्यत स्वाध्याय से ही हुई. लन्दन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर कर्णावती जो की अभी अहमदाबाद के नाम से जाने जाते है उस में वकालत करने लगे.
सरदार वल्लभ भाई पटेल जी प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री थे. वे 'सरदार पटेल' के उपनाम से प्रसिद्ध हैं. सरदार पटेल भारतीय बैरिस्टर और प्रसिद्ध राजनेता थे. भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के नेताओं में से वे एक थे. 1947 में भारत की आज़ादी के बाद पहले तीन वर्ष वे उप प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद क़रीब पांच सौ से भी ज़्यादा देसी रियासतों का एकीकरण एक सबसे बड़ी समस्या थी.
वहीं, सरदार वल्लभ भाई पटेल जी कुशल कूटनीति और ज़रूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप के जरिए सरदार पटेल जी ने उन अधिकांश रियासतों को तिरंगे के तले लाने में सफलता प्राप्त की. इसी उपलब्धि के चलते उन्हें लौह पुरुष या भारत का बिस्मार्क की उपाधि से सम्मानित किया गया. उन्हें मरणोपरांत वर्ष 1991 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' दिया गया. वर्ष 2014 में सरदार वल्लभ भाई पटेल जी की जयंती (31 अक्टूबर) 'राष्ट्रीय एकता दिवस' के रूप में मनाई जाती है.
बता दें कि एक वकील के रूप में सरदार पटेल जी ने कमज़ोर मुक़दमे को सटीकता से प्रस्तुत करके और पुलिस के गवाहों तथा अंग्रेज़ न्यायाधीशों को चुनौती देकर विशेष स्थान अर्जित किया. 1908 में पटेल जी की पत्नी की मृत्यु हो गई. उस समय उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी. इसके बाद उन्होंने विधुर जीवन व्यतीत किया. वक़ालत के पेशे में तरक़्क़ी करने के लिए कृतसंकल्प पटेल जी ने मिड्ल टेंपल के अध्ययन के लिए अगस्त, 1910 में लंदन की यात्रा की. वहां उन्होंने मनोयोग से अध्ययन किया और अंतिम परीक्षा में उच्च प्रतिष्ठा के साथ उत्तीर्ण हुए.
जानकारी के लिए बता दें कि 1917 में गांधी से प्रभावित होने के बाद सरदार पटेल जी ने पाया कि उनके जीवन की दिशा बदल गई है. पटले जी गांधी के सत्याग्रह (अंहिसा की नीति) के साथ तब तक जुड़े रहे, जब तक वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीयों के संघर्ष में क़ारगर रहा. लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को गांधी के नैतिक विश्वासों व आदर्शों के साथ नहीं जोड़ा. उनका मानना था कि उन्हें सार्वभौमिक रूप से लागू करने का गांधी का आग्रह, भारत के तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक है. फिर भी गांधी के अनुसरण और समर्थन का संकल्प करने के बाद पटेल जी ने अपनी शैली और वेशभूषा में परिवर्तन कर लिया. उन्होंने गुजरात क्लब छोड़ दिया और भारतीय किसानों के समान सफ़ेद वस्त्र पहनने लगे तथा भारतीय खान-पान को पूरी तरह से अपना लिया.
1917 से 1924 तक सरदार वल्लभ भाई पटेल जी ने कर्णावती (अहमदनगर) के पहले भारतीय निगम आयुक्त के रूप में सेवा प्रदान की और 1924 से 1928 तक वे इसके निर्वाचित नगरपालिका अध्यक्ष भी रहे. 1918 में उन्होंने अपनी पहली छाप छोड़ी, जब भारी वर्षा से फ़सल तबाह होने के बावज़ूद बम्बई सरकार द्वारा पूरा सालाना लगान वसूलने के फ़ैसले के विरुद्ध उन्होंने गुजरात के कैरा ज़िले में किसानों और काश्तकारों के जनांदोलन की रूपरेखा बनाई.
वहीं, 1928 में पटेल जी ने बढ़े हुए करों के ख़िलाफ़ बारदोली के भूमिपतियों के संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया. बारदोली सत्याग्रह के कुशल नेतृत्व के कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली और उसके बाद देश भर में राष्ट्रवादी नेता के रूप में उनकी पहचान बन गई. उन्हें व्यावहारिक, निर्णायक और यहाँ तक कि कठोर भी माना जाता था तथा अंग्रेज़ उन्हें एक ख़तरनाक शत्रु मानते थे.
सरदार पटेल जी क्रान्तिकारी नहीं थे. 1928 से 1931 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्यों पर हो रही महत्त्वपूर्ण बहस में पटेल जी का विचार था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य स्वाधीनता नहीं, बल्कि ब्रिटिश राष्ट्रकुल के भीतर अधिराज्य का दर्जा प्राप्त करने का होना चाहिए. जवाहरलाल नेहरू के विपरीत, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में हिंसा की अनदेखी करने के पक्ष में थे, पटेल जी नैतिक नहीं, व्यावहारिक आधार पर सशस्त्र आन्दोलन को नकारते थे. पटेल जी का मानना था कि यह विफल रहेगा और इसका ज़बरदस्त दमन होगा. गांधी की भाँति पटेल भी भविष्य में ब्रिटिश राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी में लाभ देखते थे. बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए. वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास क़ायम करने पर ज़ोर देते थे, लेकिन गांधी के विपरीत, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे.
वहीं बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में सरदार पटेल जी जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे. पारम्परिक हिन्दू मूल्यों से उपजे रूढ़िवादी पटेल ने भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना में समाजवादी विचारों को अपनाने की उपयोगिता का उपहास किया. वह मुक्त उद्यम में यक़ीन रखते थे. इस प्रकार, उन्हें रूढ़िवादी तत्वों का विश्वास प्राप्त हुआ तथा उनसे प्राप्त धन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियां संचालित होती रहीं.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार वल्लभ भाई पटेल जी, गांधी के बाद अध्यक्ष पद के दूसरे उम्मीदवार थे. गांधी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल जी पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला. अंतत: जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने. 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान पटेल जी को तीन महीने की जेल हुई. मार्च, 1931 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के करांची अधिवेशन की अध्यक्षता की. जनवरी, 1932 में उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया. जुलाई, 1934 में वह रिहा हुए और 1937 के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया. 1937-1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार थे. एक बार फिर गांधी के दबाव में पटेल जी को अपना नाम वापस लेना पड़ा और जवाहरलाल नेहरू निर्वाचित हुए. अक्टूबर, 1940 में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ पटेल जी भी गिरफ़्तार हुए और अगस्त, 1941 में रिहा हुए.
बताया जा रहा है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी हमले की आशंका हुई, तो सरदार वल्लभ भाई पटेल जी ने गांधी की अहिंसा की नीति को अव्यावहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया. सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी उनका गांधी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान के रूप में विभाजन अपरिहार्य है. पटेल जी ने ज़ोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है. 1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल जी प्रमुख उम्मीदवार थे. लेकिन गांधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया. इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो सरदार पटेल जी भारत के पहले प्रधानमंत्री होते.
आज लौहपुरुष 'भारत रत्न' सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.