हमारे देश में ऐसे अनेकों महान महापुरुषों ने जन्म लिया है, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया है. कई ऐसे लोग थे जिन्होंने इस देश में रह कर भी भारत के इतिहास से इन वीरों को मिटाने की कई कोशिशें की. इन लोगों ने उन सभी क्रांतिकारियों और महापुरुषों के नाम को छिपाने और सदा के लिए मिटाने की कोशिश की. उन लाखों महान क्रांतिकारियों में से एक थे पंडित गोपबंधु दास जी. आज पंडित गोपबंधु दास जी के जन्मजयंती पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.
ओड़िशा में राष्ट्रीयता एवं स्वाधीनता संग्राम की बात चलाने पर लोग गोपबंधु दास जी का नाम सर्वप्रथम लेते हैं. ओड़िशा-वासी उनको "दरिद्रर सखा" (दरिद्र के सखा) रूप से स्मरण करते हैं. ओड़िशा के पुण्यक्षेत्र पुरी में जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार के उत्तरी पार्श्व में चौक के सामने उनकी एक संगमरमर की मूर्ति स्थापित है. उत्कल के विभिन्न अंचलों को संघटित कर पूर्णांग ओड़िशा बनाने के लिये उन्हांने प्राणपण से चेष्टा की. उत्कल के विशिष्ट दैनिक पत्र "समाज" के ये संस्थापक थे.
गोपबंधु दास जी का जन्म सन् 1877 ई. में पुरी जिले के सत्यवादी थाना के अंतर्गत "सुआंडो" नामक एक क्षुद्र पल्ली (गांव) में हुआ था. जून,1928 में केवल 53 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हुआ. जीविका अर्जन के लिये उन्होंने वकालत की, तथापि शिक्षक के जीवन को वे सदा आदर्श जीवन मानते थे. कुछ दिनों तक उन्होंने शिक्षण कार्य किया भी था. अंग्रेजी शासन में पराधीन रहकर भी उन्होंने स्वाधीन शिक्षा पद्धति अपनाई थी.
बंगाल के शांति निकेतन की तरह उड़ीसा के सत्यवादी नामक स्थान में खुले आकाश के नीचे एक वनविद्यालय खोला था और वहां बकुलवन में छात्रों को स्वाधीन ढंग से शिक्षा दिया करते थे. उन्हीं की प्रेरणा से उड़ीसा के विशिष्ट जननेता और कवि स्वर्गीय गोदावरीश मिश्र और उत्कल विधानसभा के वाचस्पति (प्रमुख) पंडित नीलकंठ दास ने इस वनविद्यालय में शिक्षक रूप से कार्य किया था. सत्यवादी वन विद्यालय के पांच प्रतिष्ठापक गोपबंधु, नीलकंठ, गोदावरीश, आचार्य हरिहर व कृपासिन्धु दास आधुनिक ओड़िशा के “पंच सखा” कहलाते हैं.
बचपन से ही गोपबन्धु जी में कवित्व का लक्षण स्पष्ट भाव से देखा गया था. स्कूल में पढ़ते समय ही ये सुन्दर कविताएं लिखा करते थे. सरल और मर्मस्पर्शी भाषा में कविता लिखने की शैली उनसे ही आम्रभ हुई. ओड़िया साहित्य में वे एक नए युग के स्रष्टा हुए, उसी युग का नाम "सत्यवादी युग" है. सरलता और राष्ट्रीयता इस युग की विशेषताएं हैं. "अवकाश चिंता", "बंदीर आत्मकथा" और "धर्मपद" प्रभृति पुस्तकों में से प्रत्येक ग्रंथ एक एक उज्वल मणि है. "बंदीर आत्मकथा" जिस भाषा और शैली में लिखी गई है, ओड़िया भाषी उसे पढ़ते ही राष्ट्रीयता के भाव से अनुप्राणित हो उठते हैं. "धर्मपद" पुस्तक में "कोणार्क" मंदिर के निर्माण पर लिखे गए वर्णन को पढ़कर ओड़िया लोग विशेष गौरव का अनुभव करते हैं. यद्यपि ये सब छोटी छोटी पुस्तकें हैं, तथापि इनका प्रभाव अनेक बृहत् काव्यों से भी अधिक है.
साल 1903 में उत्कलमणि गोपबंधु के उत्कल सम्मेलन के साथ ही उनके राजनीतिक की संपर्क शुरुआत हुई, लेकिन उन्होंने दूसरों को राजी कर दिया कि वह राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाया. इसीलिए वह ओडिशा में कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष बने. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. सत्ता की खोज में नेताओं के आपसी झगड़ों से वह दुखी थे. लोगों की सेवा के क्षेत्र में फिर वापसी की. वह मृत्यु पर्यंत लोकसेवक मंडल के उपाध्यक्ष रहे. गोपबंधु जी 1917 से लेकर 1920 तक चार साल के लिए ओल्ड बिहार और ओडिशा विधान परिषद के सदस्य भी रहे. आज गोपबंधु दास जी के जन्मजयंती दिवस पर उनके गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प सुदर्शन परिवार लेता है.