विजयादशमी के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी ने नागपुर के रेशम बाग मैदान में ‘शस्त्र पूजन’ किया. हर साल के तरह इस साल भी दशहरा के अवसर पर आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम पर सभी की नजरें होती हैं. इसी मौके पर पद्मभूषण डॉक्टर के. राधाकृष्णन एवं पूर्व अध्यक्ष भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया है. इस दौरान भागवत जी ने अपना संबोधन भी किया.
उन्होंने कहा कि हम भारत के लोगों ने अपने आप को यह संविधान से प्रतिबद्धता दी है. संविधान की प्रस्तावना के इस वाक्य के इस भाव को ध्यान में रखकर संविधान प्रदत्त कर्तव्यों का और कानून का योग्य निर्वहन सभी को करना होता है.मोहन भागवत जी ने कहा कि छोटी बड़ी सभी बातों में इस नियम व्यवस्था का पालन हमें करना चाहिए. यातायात के नियम होते हैं, विभिन्न प्रकार के कर समय पर भरने पड़ते हैं, स्वयं के व्यक्तिगत तथा सामाजिक अर्थायाम की शुद्धता व पारदर्शिता का अनुशासन भी होता है. भागवत जी ने कहा कि ऐसे अनेक प्रकार के नियमों का कर्त्तव्य बुद्धि से पूर्ण निर्वहन होना चाहिए. नियम व व्यवस्था का पालन शब्दशः व भाव ध्यान में रखते हुए, (in letter and spirit) दोनों प्रकार से करना चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि यह ठीक प्रकार से हो सके इसलिए विशेष कर अपने संविधान के चार प्रकरणों की जानकारी, यथा - संविधान की प्रस्तावना, मार्गदर्शक तत्व, नागरिक कर्तव्य व नागरिक अधिकार - का प्रबोधन सर्वत्र होते रहना चाहिए.
मोहन भागवत जी ने कहा कि संस्कारों की अभिव्यक्ति का दूसरा पहलू है हमारा सामाजिक व्यवहार. समाज में हम एक साथ रहते हैं. साथ में सुखपूर्वक रह सके इसलिए कुछ नियम बने होते हैं. देश काल परिस्थितिनुसार उनमें परिवर्तन भी होते रहता है. परन्तु हम सुखपूर्वक एकत्र रह सके इसलिए उन नियमों के श्रद्धापूर्वक पालन की अनिवार्यता रहती है. उन्होंने आगे कहा कि एकत्र रहते हैं तो हमारे परस्परों के प्रति व्यवहार के भी कुछ कर्तव्य और उनके अनुशासन बन जाते है. कानून व संविधान भी ऐसा ही, एक सामाजिक अनुशासन हैं. समाज में सब लोग सुखपूर्वक, एकत्र रहें, उन्नती करते रहें, बिखरें नहीं, इसलिए बना हुआ अधिष्ठान व नियम है .
उन्होंने आगे कहा कि जहां तक संस्कारों के क्षरण का प्रश्न है, तीन स्थानों पर - जहां से संस्कार मिलते हैं, - संस्कार प्रदान की व्यवस्था को पुनर्स्थापित व समर्थ, सक्षम करना पडेगा. शिक्षा पद्धति पेट भरने की शिक्षा देने के साथ साथ छात्रों के व्यक्तित्व विकास का भी काम करती है. अपने देश के सांस्कृतिक मूल्य सारांश में बताने वाला एक सुभाषित है.
मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्, ।
आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स: पंडित: । ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी ने कहा कि महिलाओं को माता समान देखने की दृष्टी, पराया धन मिट्टी समान मानते हुए स्वयं के परिश्रम से व सन्मार्ग से ही धनार्जन करना और दूसरों को दु:ख कष्ट हो ऐसे आचरण, कार्य नहीं करना, यह जिसका व्यवहार है उसको अपने यहां शिक्षित मानते हैं. उन्होंने आगे कहा कि नई शिक्षा नीति में इस प्रकार के मूल्य शिक्षा की व्यवस्था व तदनुरूप पाठ्यक्रम का प्रयास चला है परन्तु प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षकों के उदाहरण छात्रों के सामने उपस्थित हुए बिना यह शिक्षा प्रभावी नहीं होगी. इसलिए शिक्षकों के प्रशिक्षण की नई व्यवस्था निर्माण करनी पड़ेगी.
भागवत जी ने आगे कहा कि दूसरा स्थान है समाज का वातावरण. समाज के जो प्रमुख लोग हैं जिनकी लोकप्रियता के कारण अनेक लोग उनका अनुकरण करते हैं, उनके आचरण में ये सारी बातें दिखनी चाहिए. इन बातों का मंडन भी उन प्रमुख लोगों को करना चाहिए और उनके प्रभाव से समाज में चलने वाले विभिन्न प्रबोधन कार्यों से यह मूल्य प्रबोधन किया जाना चाहिए. RSS प्रमुख ने कहा कि समाज संवाद माध्यमों का (social media) उपयोग करने वाले सभी सज्जनों को माध्यमों का उपयोग समाज को जोड़ने के लिए हैं, तोड़ने के लिए न हों, सुसंकृत करने के लिए है, अपसंस्कृति फैलाने के लिए नहीं इस बात की सावधानी बरतनी होगी.
उन्होंने आगे कहा कि चारों ओर के वातावरण में एक विश्वव्यापी समस्या जिसका अनुभव हाल के वर्षों में अपने देश में भी हो रहा है वह है पर्यावरण की दु:स्थिति. ऋतुचक्र अनियमित व उग्र बन गया है. उपभोगवादी तथा जड़वादी अधूरे वैचारिक आधार पर चली मानव की तथाकथित विकास यात्रा मानवों सहित सम्पूर्ण सृष्टि की विनाश यात्रा लगभग बन गयी है. RSS प्रमुख ने कहा कि अपने भारतवर्ष की परम्परा से प्राप्त सम्पूर्ण, समग्र व एकात्म दृष्टी के आधार पर हमने अपने विकास पथ को बनाना चाहिए था परन्तु हमने ऐसा नहीं किया. अभी इस प्रकार का विचार थोड़ा थोड़ा सुनाई दे रहा है परन्तु उपरी तौर पर कुछ बातें स्वीकार हुईं हैं, कुछ बातों का परिवर्तन हुआ है. इससे अधिक काम नहीं हुआ है.
मोहन भागवत ने आगे कहा कि विकास के बहाने विनाश की ओर ले जाने वाले अधूरे विकास पथ के अन्धानुसरण के परिणाम हम भी भुगत रहे हैं. गर्मी की ऋतु झुलसा देती है, वर्षा बहा कर ले जाती है और शीत ऋतु जीवन को जड़वत् जमा देती है. ऋतुओं की यह विक्षिप्त तीव्रता हम अनुभव कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि जंगल काटने से हरियाली नष्ट हो गयी, नदियां सूख गयीं, रसायनों ने हमारे अन्न जल वायु व धरती तक को विषाक्त कर दिया, पर्वत ढहने लगे, भूमी फटने लगी, यह सारे अनुभव पिछले कुछ वर्षों में देश भर में हम अनुभव कर रहे हैं . अपने वैचारिक आधार पर, इस सारे नुकसान को पूरा कर हमको धारणाक्षम, समग्र व एकात्म विकास देने वाला हमारा पथ हम निर्माण करें इसका कोई पर्याय नहीं है.
भागवत ने कहा कि सम्पूर्ण देश में इसकी समान वैचारिक भूमिका बने व देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए क्रियान्वयन का विकेन्द्रित विचार हों तब यह संभव है. परन्तु हम सामान्य लोग अपने घर से तीन छोटी छोटी सरल बातों का आचरण करते हुए प्रारम्भ कर सकते हैं. पहली बात है जल का न्यूनतम आवश्यक उपयोग तथा वर्षा जल का संधारण. उन्होंने कहा कि दूसरी बात है प्लास्टिक वस्तुओं का उपयोग नहीं करना. जिसको अंग्रेजी में single use plastic कहते हैं, उसका उपयोग पूर्णत: वर्ज करना. तीसरी बात अपने घर से लेकर बाहर भी हरियाली बढे, वृक्ष लगें, अपने जंगलों के और परम्परा से लगाए जाने वाले वृक्ष सर्वत्र खड़े हों इसकी चिंता करना. पर्यावरण के सम्बन्ध में नीतिगत प्रश्नों का समाधान होने के लिए समय लगेगा, परन्तु यह सहज कृति अपने घर से हम त्वरित प्रारम्भ कर सकते हैं.
RSS प्रमुख ने कहा कि समाज की स्वस्थ व सबल स्थिति की पहली शर्त है सामाजिक समरसता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सद्भाव. कुछ संकेतात्मक कार्यक्रम मात्र करने से यह कार्य संपन्न नहीं होता है. समाज के सभी वर्गों व स्तरों में व्यक्ति की व कुटुम्बों की मित्रता होनी चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि यह पहल हम सभी को व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर से करनी होगी. परस्परों के पर्व प्रसंगों में सभी की सहभागिता होकर वे पूरे समाज के पर्व प्रसंग बनने चाहिए मोहन भागवत ने कहा कि सार्वजनिक उपयोग के व श्रद्धा के स्थल यथा मंदिर, पानी, स्मशान आदि में समाज के सभी वर्गों को सहभागी होने का वातावरण चाहिए. परिस्थिति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएं सभी वर्गों को समझ में आनी चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि जैसे कुटुंब में समर्थ घटक दुर्बल घटकों के लिए अधिक प्रावधान, कभी कभी अपना नुकसान सहन करके भी करते हैं, वैसे अपनेपन की दृष्टी रखकर ऐसी आवश्यकताओं का विचार होना चाहिए.
भागवत जी ने कहा कि समाज की स्वस्थ व सबल स्थिति की पहली शर्त है सामाजिक समरसता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सद्भाव. कुछ संकेतात्मक कार्यक्रम मात्र करने से यह कार्य संपन्न नहीं होता है. समाज के सभी वर्गों व स्तरों में व्यक्ति की व कुटुम्बों की मित्रता होनी चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि यह पहल हम सभी को व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर से करनी होगी. परस्परों के पर्व प्रसंगों में सभी की सहभागिता होकर वे पूरे समाज के पर्व प्रसंग बनने चाहिए. सार्वजनिक उपयोग के व श्रद्धा के स्थल यथा मंदिर, पानी, स्मशान आदि में समाज के सभी वर्गों को सहभागी होने का वातावरण चाहिए. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि परिस्थिति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएं सभी वर्गों को समझ में आनी चाहिए. जैसे कुटुंब में समर्थ घटक दुर्बल घटकों के लिए अधिक प्रावधान, कभी कभी अपना नुकसान सहन करके भी करते हैं, वैसे अपनेपन की दृष्टी रखकर ऐसी आवश्यकताओं का विचार होना चाहिए.
उन्होंने कहा कि परिस्थिति का उपरोक्त वर्णन यह डरने, डराने या लड़ाने के लिए नहीं है. ऐसी परिस्थिति विद्यमान है यह हम सब अनुभव कर रहे हैं. साथ में इस देश को एकात्म, सुख शान्तिमय समृद्ध व बलसंपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है, सबका कर्तव्य भी है. इसमें हिन्दू समाज की जिम्मेवारी अधिक है . इसलिए समाज की एक विशिष्ठ प्रकार की स्थिति, सजगता तथा एक विशिष्ट दिशा में मिलकर प्रयासों की आवश्यकता है. भागवत ने कहा कि समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थायें, प्रशासन, शासन आदि सब सहाय्यक होते हैं. शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है, बाद में रोग उसको घेरते हैं . दुर्बलों की परवाह देव भी नहीं करते ऐसा एक सुभाषित प्रसिद्ध है.
अश्वं नैव गजं नैव, व्याघ्रं नैव च नैव च, |
अजापुत्रं बलिं दद्यात्, देवो दुर्बल घातक: ||
भागवत जी ने कहा कि इसीलिए शताब्दि वर्ष के पुरे होने के पश्चात समाज में कुछ विषय लेकर सभी सज्जनों को सक्रिय करने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं.
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि समाज की स्वस्थ व सबल स्थिति की पहली शर्त है सामाजिक समरसता तथा समाज के विभिन्न वर्गों में परस्पर सद्भाव. कुछ संकेतात्मक कार्यक्रम मात्र करने से यह कार्य संपन्न नहीं होता है. समाज के सभी वर्गों व स्तरों में व्यक्ति की व कुटुम्बों की मित्रता होनी चाहिए. यह पहल हम सभी को व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर से करनी होगी. परस्परों के पर्व प्रसंगों में सभी की सहभागिता होकर वे पूरे समाज के पर्व प्रसंग बनने चाहिए. सार्वजनिक उपयोग के व श्रद्धा के स्थल यथा मंदिर, पानी, स्मशान आदि में समाज के सभी वर्गों को सहभागी होने का वातावरण चाहिए भागवत जी ने कहा कि परिस्थिति के कारण समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएं सभी वर्गों को समझ में आनी चाहिए . जैसे कुटुंब में समर्थ घटक दुर्बल घटकों के लिए अधिक प्रावधान, कभी कभी अपना नुकसान सहन करके भी करते हैं, वैसे अपनेपन की दृष्टी रखकर ऐसी आवश्यकताओं का विचार होना चाहिए .
उन्होंने कहा कि देश में विनाकारण कट्टरपन को उकसाने वाली घटनाओं में भी अचानक वृद्धि हुई दिख रही है. परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परन्तु उसको व्यक्त करने के और उनका विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होते हैं. उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना, समाज के एकाध विशिष्ट वर्ग पर आक्रमण करना, विना कारण हिंसा पर उतारू होना, भय पैदा करने का प्रयास करना, यह तो गुंडागर्दी है. इसको उकसाने के प्रयास होते हैं अथवा योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है ऐसे आचरण को पूज्य डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर जी ने अराजकता का व्याकरण ( ‘Grammar of Anarchy’ ) कहा है भागवत जी ने कहा कि अभी बीत गए गणेशोत्सवों के समय श्रीगणपति विसर्जन की शोभायात्राओं पर अकारण पथराव की तथा तदुपरान्त बनी तनावपूर्ण परिस्थिति की घटनाएं उसी व्याकरण का उदाहरण है. ऐसी घटनाओं को होने नहीं देना, वो होती हैं तो तुरंत नियंत्रित करना, उपद्रवियों को त्वरित दण्डित करना यह प्रशासन का काम है. परन्तु उनके पहुंचने तक तो समाज को ही अपने तथा अपनों के प्राणों की व सम्पत्ती की रक्षा करनी पड़ती है. इसलिए समाज ने भी सदैव पूर्ण सतर्क व सन्नद्ध रहने की तथा इन कुप्रवृत्तियों को, उन्हें प्रश्रय देने वालों को पहचानने की आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है.
सरसंघचालक ने कहा कि संस्कार क्षय का ही यह परिणाम है कि "मातृवत् परदारेषु" के आचरण की मान्यता वाले हमारे देश में बलात्कार जैसी घटनाओं का मातृशक्ति को कई जगह सामना करना पड़ रहा है. कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल में घटी घटना सारे समाज को कलंकित करने वाली लज्जाजनक घटनाओं में एक है. उन्होंने आगे कहा कि उसके निषेध तथा त्वरित व संवेदनशील कार्यवाही की मांग को लेकर चिकित्सक बंधुओं के साथ सारा समाज तो खड़ा हुआ. परन्तु ऐसा जघन्य पाप घटने पर भी, कुछ लोगों के द्वारा जिस प्रकार अपराधियों को संरक्षण देने के घृणास्पद प्रयास हुए, यह सब अपराध, राजनीति तथा अपसंस्कृति का गठबंधन हमें किस तरह बिगाड़ रहा है, यह दिखाता है.
सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ने कहा कि बहुदलीय प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में सत्ता प्राप्त करने हेतु दलों की स्पर्धा चलती है. अगर समाज में विद्यमान छोटे स्वार्थ,परस्पर सद्भावना अथवा राष्ट्र की एकता व अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण हो गये; अथवा दलों की स्पर्धा में समाज की सद्भावना व राष्ट्र का गौरव व एकात्मता गौण माने गए, तो ऐसी दलीय राजनीति में एक पक्ष की सहायता में खड़े होकर पर्यायी राजनीति के नाम पर अपनी उच्छेदक कार्यसूची को आगे बढ़ाना इनकी कार्यपद्धति है. उन्होंने आगे कहा कि यह कपोल-कल्पित कहानी नहीं बल्कि दुनिया के अनेक देशों पर बीती हुई वास्तविकता है. पाश्चात्य जगत के प्रगत देशों में इस मंत्रविप्लव के परिणाम स्वरूप जीवन की स्थिरता, शांति व मांगल्य संकट में पड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देता है. तथाकथित "अरब स्प्रिंग" से लेकर अभी अभी पड़ोस के बांग्लादेश में जो घटित हुआ वहां तक इस पद्धति को काम करते हुए हमने देखा है. भारत के चारों ओर के - विशेषतः सीमावर्ती तथा जनजातीय जनसंख्या वाले प्रदेशों में इसी प्रकार के कुप्रयासों को हम देख रहे हैं.
मोहन भागवत जी ने कहा कि अभी अभी बांग्लादेश में जो हिंसक तख्तापलट हुआ उसके तात्कालिक व स्थानीय कारण उस घटनाक्रम का एक पहलू है. परन्तु तद्देशीय हिंदु समाज पर अकारण नृशंस अत्याचारों की परंपरा को फिर से दोहराया गया. उन अत्याचारों के विरोध में वहां का हिंदु समाज इस बार संगठित होकर स्वयं के बचाव में घर के बाहर आया इसलिए थोड़ा बचाव हुआ. परन्तु यह अत्याचारी कट्टरपंथी स्वभाव जब तक वहां विद्यमान है तब तक वहां के हिंदुओं सहित सभी अल्पसंख्यक समुदायों के सिर पर खतरे की तलवार लटकी रहेगी. इसीलिए उस देश से भारत में होनेवाली अवैध घुसपैठ व उसके कारण उत्पन्न जनसंख्या असंतुलन देश में सामान्य जनों में भी गंभीर चिंता का विषय बना है.
उन्होंने आगे कहा कि देश में आपसी सद्भाव व देश की सुरक्षा पर भी इस अवैध घुसपैठ के कारण प्रश्न चिन्ह लगते है. उदारता, मानवता, तथा सद्भावना के पक्षधर सभी के, विशेष कर भारत सरकार तथा विश्वभर के हिंदुओं के सहायता की बांग्लादेश में अल्पसंख्यक बने हिंदु समाज को आवश्यकता रहेगी. असंगठित रहना व दुर्बल रहना यह दुष्टों के द्वारा अत्याचारों को निमंत्रण देना है यह पाठ भी विश्व भर के हिंदु समाज को ग्रहण करना चाहिए. परन्तु बात यहां रुकती नहीं. अब वहां भारत से बचने के लिए पाकिस्तान से मिलने की बात हो रही है. भागवत जी ने कहा कि ऐसे विमर्श खड़े कर व स्थापित कर कौनसे देश भारत पर दबाव बनाना चाहते हैं इसको बताने की आवश्यकता नहीं है . इसके उपाय यह शासन का विषय है . परंतु समाज के लिए सर्वाधिक चिन्ता की बात यह है कि समाज में विद्यमान भद्रता व संस्कार को नष्ट-भ्रष्ट करने के, विविधता को अलगाव में बदलने के, समस्याओं से पीड़ित समूहों में व्यवस्था के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने के तथा असन्तोष को अराजकता में रूपांतरित करने के प्रयास बढ़े हैं.
सरसंघचालक ने कहा कि ''डीप स्टेट', 'वोकिज़म', 'कल्चरल मार्क्सिस्ट', आजकल चर्चा में हैं. वास्तव में ये सभी सांस्कृतिक परम्पराओं के घोषित शत्रु हैं. सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है. समाज मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों को अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार, तथा आस्था को नष्ट करना, यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण होता है. उन्होंने आगे कहा कि असंतोष को हवा देकर उस घटक को शेष समाज से अलग, व्यवस्था के विरुद्ध, उग्र बनाया जाता है. समाज में टकराव की सम्भावनाओं को (fault lines) ढूंढ कर प्रत्यक्ष टकराव खड़े किए जाते हैं. व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अश्रद्धा व द्वेष को उग्र बना कर अराजकता व भय का वातावरण खड़ा किया जाता है. इससे उस देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल हो जाता है.
डा मोहन भागवत जी ने कहा कि15 नवम्बर से भगवान बिरसा मुंडा की जन्मजयंती का 150वां वर्ष प्रारंभ होगा. यह सार्धशती हमें, जनजातीय बंधुओं की गुलामी तथा शोषण से, स्वदेश पर विदेशी वर्चस्व से मुक्ति, अस्तित्व व अस्मिता की रक्षा एवं स्वधर्म रक्षा के लिए भगवान बिरसा मुंडा के द्वारा प्रवर्तित उलगुलान की प्रेरणा का स्मरण करा देगी. भगवान बिरसा मुंडा के तेजस्वी जीवनयज्ञ के कारण ही अपने जनजातीय बंधुओं के स्वाभिमान, विकास तथा राष्ट्रीय जीवन में योगदान के लिए एक सुदृढ़ आधार मिल गया है.
उन्होंने आगे कहा कि रामराज्य सदृश ऐसा वातावरण निर्माण होने के लिए प्रजा की गुणवत्ता व चारित्र्य तथा स्वधर्म पर दृढ़ता जैसी होना अनिवार्य है, वैसा संस्कार व दायित्वबोध सब में उत्पन्न करने वाला "सत्संग" अभियान परमपूज्य श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर के द्वारा प्रवर्तित किया गया था भागवत ने कहा कि आज के बांग्लादेश तथा उस समय के उत्तर बंगाल के पाबना में जन्मे श्री श्री अनुकूलचन्द्र ठाकुर जी होमियोपैथी चिकित्सक थे तथा स्वयं की माता जी के द्वारा ही अध्यात्म साधना में दीक्षित थे. व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर उनके सम्पर्क में आने वाले लोगों में सहज रूप से चरित्र विकास तथा सेवा भावना के विकास की प्रक्रिया ही 'सत्संग' बनी. 2024 से 2025 ‘सत्संग’ के मुख्यालय देवघर (झारखंड) में उस कर्मधारा की भी शताब्दी मनने वाली है. सेवा, संस्कार तथा विकास के अनेक उपक्रमों को लेकर यह अभियान आगे बढ़ रहा है.
डा मोहन भागवत जी ने कहा कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200वीं जन्मजयन्ती का वर्ष है. उन्होंने पराधीनता से मुक्त होकर काल के प्रवाह में आचार धर्म व सामाजिक रीति-रिवाजों में आयी विकृतियों को दूर कर, समाज को अपने मूल के शाश्वत मूल्यों पर खड़ा करने का प्रचंड उद्यम किया. भारत वर्ष के नवोत्थान की प्रेरक शक्तियों में उनका नाम प्रमुख है.
आरएसएस प्रमुख ने कहा कि इस वर्ष पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर जी की 300वीं जन्मशती का वर्ष मनाया जा रहा है. देवी अहिल्याबाई एक कुशल राज्य प्रशासक, प्रजाहितदक्ष कर्तव्यपरायण शासक, धर्म संस्कृति व देश की अभिमानी, शीलसंपन्नता का उत्तम आदर्श तथा रण - नीति की उत्कृष्ट समझ रखने वाली राज्यकर्ता थी. अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी अद्भुत क्षमता का परिचय देते हुए घर को, राज्य को; स्वयं की अखिल भारतीय दृष्टि के कारण अपनी राज्य सीमा के बाहर भी, तीर्थ क्षेत्रों के जीर्णोद्धार व देवस्थानों के निर्माण द्वारा समाज के सामरस्य को तथा समाज में संस्कृति को जिस तरह सम्हाला वह आज के समय में भी मातृशक्ति सहित हम सब के लिए अनुकरणीय उदाहरण है। साथ ही यह भारत की मातृशक्ति के कर्तृत्व व नेतृत्व की दैदीप्यमान परंपरा का उज्ज्वल प्रतीक भी है.