जो धन धान्य से पूर्ण हो उसको अक्सर मद या अहंकार से ग्रसित जरूर देखा रहा होगा आप ने . पर कभी ऐसे प्रेरणा जो महारानी होते हुए भी पल पल सेवा भाव रख कर जीवन बिताई हो उनमे से एक थी आज ही के दिन जन्मी महारानी विजयाराजे सिंधिया जी . राजनीति का शाब्दिक अर्थ होता है राज्य करने की नीति. वहीं, आज उनके पावन जन्म दिवस पर सुदर्शन परिवार सादगी और सेवा की उस प्रतिमूर्ति को बारम्बार नमन , वंदन और अभिनन्दन करता है.
लेकिन इस नीति से आठ बार लोकसभा सदस्य, एक बार राज्य सभा सदस्य और एक बार विधानसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद भारतीय राजनीति की दैदीप्यमान नेत्री कै. राजमाता विजयाराजे सिंधिया हमेशा अपरिचित रहीं. राजनीति को उन्होंने हमेशा समाजसेवा और धर्मनीति को अग्रसर करने के एक माध्यम के रूप में अंगीकार किया.
राजनीति की घनघोर काजल कोठरी में रहने के बाद भी उनके ध्वल श्वेत वस्त्रों पर कालिख का एक भी दाग नहीं लगा. लगता भी क्यों? उनके जीवन में एक नहीं अनेक अवसरों पर पदासीन होने के अवसर आए, लेकिन पूर्ण विनम्रता से राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने न तो उपराष्ट्रपति, न ही मुख्यमंत्री और न ही भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया.
राजनीति में लोग धन-दौलत और ऐश्वर्य कमाने के लिए आते हैं, लेकिन राजमाता विजयाराजे सिंधिया थीं, जिन्होंने राजनीति के पवित्र मिशन को पूर्ण करने के लिए अपनी करोड़ों रूपए की संपत्ति का दान कर संदेश दिया कि राजनीति राज करने की नीति नहीं बल्कि समाजसेवा का एक माध्यम है, विद्यादान सबसे बड़ा दान है. इस कहावत को चरितार्थ करते हुए राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने सरस्वती शिशु मंदिर, गोरखी शिशु मंदिर, एमआईटीएस कॉलेज हेतु अपनी वेशकीमती जमीनदान कर स्कूल और इंजीनियरिंग कॉलेज खुलवाए. उनकी सत्य के लिए दृढ़ता और अन्याय के आगे न झुकने की क्षमता भी वेमिसाल थी.
आपात काल में उन्होंने झुकने की बजाय तिहाड़ जेल के उस बाड़े में रहना स्वीकार किया जिसमें अपराधी महिलाओं का बसेरा था. राजमाता विजयाराजे सिंधिया को यह अद्वितीय गुण उनके धार्मिक स्वभाव के कारण हांसिल हुए थे. उनमें ईश्वर के प्रति भक्ति इस हद तक थी कि वह मंदिरों में घंटों बैठकर साधना और पूजा किया करती थीं.
मंदिरों से इसी लगाव के कारण कहा जाता है कि उनकी आत्मा मंदिरों में बसती है और शायद इसी कारण अपनी माँ से जुडऩे के लिए मध्यप्रदेश सरकार की खेल मंत्री रहीं यशोधरा राजे सिंधिया पूरे प्रदेश में युद्धस्तर पर मंदिरों के जीर्णोद्धार के कार्य किये. सागर जिले में 12 अक्टूबर सन् 1919 को राणा परिवार में जन्मी विजयाराजे सिंधिया के पिता महेन्द्र सिंह ठाकुर डिप्टी कलेक्टर थे. उनकी माँ विंदेश्वरी देवी उन्हें बचपन से ही लेखा दिव्येश्वरी के नाम से बुलाती थी. 21 फरवरी 1941 में ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से उनका विवाह हुआ.
पति के निधन के पश्चात राजमाता विजयाराजे सिंधिया राजसी ठाठबाट त्याग कर जनसेवा के लिए राजनीति में कूंद गर्ई. 1957 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस से चुनाव लड़ा और आसानी से विजय हांसिल की. लेकिन अपने आदर्शों और सिद्धांतों के परिपालन ने उन्हें कांग्रेस से नाता तोडऩे के लिए कहा.
आख़िरकार कुछ समय बाद ही राजमाता ने अपनी आत्मा की आवाज को शिरोधार्य कर कांग्रेस को अलविदा कहा.सन 67 में राजमाता ने प्रदेश में डीपी मिश्रा के मु यमंत्रित्व काल में उनके विरूद्ध बगावत का झंडा बुलंद किया और 36 कांग्रेस विधायकों को फोडक़र डीपी मिश्रा को मुख्यमंत्री पद से हटाने में सफलता हासिल की.
उस समय मुख्यमंत्री पद के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम खूब चर्चित हुआ. लेकिन पदीय राजनीति से दूर रहने की भावना के तहत राजमाता ने स्वयं पद न ग्रहण करते हुए गोविन्द नारायण सिंह को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया. और इसके बाद राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले डीपी मिश्रा की सक्रिय राजनीति में कभी वापसी नहीं हुई.
सन 1971 में अटल बिहारी बाजपेयी जब भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को छोड़ रहे थे. उस दौरान भी राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए चला, लेकिन राजमाता ने विनम्रता से यह पद भी ठुकरा कर जताया कि वह किसी और मिट्टी की बनी है. लेकिन जब पार्टी ने उन पर दवाब डाला तो राजमाता ने कहा कि वह दतिया के पीता बरा मंदिर पर जाकर माँ से स्वीकृति मिलने के बाद ही पद ग्रहण करेंगी. इसके बाद राजमाता पीता बरा मंदिर पहुंची और दो घंटे की पूजा अर्चना के बाद उन्होंने साफ कह दिया कि माँ नहीं चाहती कि मैं पदीय राजनीति में पडूं और जीवन भर राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी इस प्रतिज्ञा का पालन किया.
26 जून 1975 को जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब देश में आपातकाल लागू किया तो राजमाता विजयाराजे सिंधिया को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उनके समक्ष शर्त रखी गई कि यदि वह इन्द्राजी की आधीनता स्वीकार कर लें और माफी मांग लें तो उन्हें तिहाड़ जेल से मुक्त कर दिया जाएगा. लेकिन अन्याय के आगे झुकना राजमाता को मंजूर नहीं था और उन्होंने माफी मांगने के स्थान पर तिहाड़ जेल के उस बाड़े में रहना मंजूर किया जिसमें एक से बढक़र एक आपराधिक महिलायें कैद थी. आपातकाल के बाद 1980 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लडऩे का फैसला किया.
राजमाता का डर इंदिरा गांधी पर पर इस हद तक हावी हुआ कि उन्होंने रायबरेली के साथ-साथ फिर मेंडक से भी चुनाव लडऩे का निर्णय लिया. यह बात अलग है कि इंदिरा गांधी दोनों स्थानों से चुनाव जीतने में सफल रहीं. आपातकाल खत्म होने के बाद जब देश में जनता पार्टी की सरकार बनी और प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई बने.
इसके बाद जनता पार्टी ने राष्ट्रपति पद के लिए जहां नीलम संजीव रेड्डी का चयन किया वहीं उपराष्ट्रपति पद के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया को उम्मीदवार बनाना तय किया, लेकिन राजमाता ने साफ कहा कि राजनीति उनके लिए जनसेवा का माध्यम है, राज्य करने और शासन करने की नीति नहीं है.
स्पष्ट है कि राजमाता भारतीय राजनीति की वह अराजनैतिक किरदार और स्वर्णिम अध्याय हैं जिनका आज के परिप्रेक्ष्य में दीदार मुश्किल है. आज उनके पावन जन्म दिवस पर सुदर्शन परिवार सादगी और सेवा की उस प्रतिमूर्ति को बारम्बार नमन , वंदन और अभिनन्दन करता है.