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4 नवंबर : जन्मजयंती पर नमन कीजिए क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के जी...जिन्होंने माँ भारती की परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए सशस्त्र संगठन 'रामोशी' बनाकर ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ाई

आज क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के जी के जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.

Sumant Kashyap
  • Nov 4 2024 9:19AM

स्वतंत्रता संग्राम में कई क्रांतिकारी ऐसे थे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया. ऐसा ही एक नाम है महान स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के जी का. जिन्होंने  1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद स्वाधीनता के महासमर की पहली चिंगारी जलाई थी. आज क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के जी के जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.

ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी और भारत माँ का सच्चा बेटा थे वासुदेव बलवंत फड़के जी. वो ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले भारत के प्रथम क्रान्तिकारी थे. उनका जन्म 4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के रायगड जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था.

वासुदेव बलवन्त फड़के जी बड़े तेजस्वी और स्वस्थ शरीर के बालक थे. उन्हें वनों और पर्वतों में घूमने का बड़ा शौक़ था. कल्याण और पूना में उनकी शिक्षा हुई. जी फड़के के पिता चाहते थे कि वह एक व्यापारी की दुकान पर दस रुपए मासिक वेतन की नौकरी कर लें और पढ़ाई छोड़ दें. लेकिन वासुदेव बलवन्त फड़के जी ने यह बात नहीं मानी और मुम्बई आ गए. वहां पर जी.आर.पी. में बीस रुपए मासिक की नौकरी करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी. 28 वर्ष की आयु में फड़के जी की पहली पत्नी का निधन हो जाने के कारण इनका दूसरा विवाह किया गया.

वासुदेव बलवन्त फड़के जी 1857 की विफल क्रान्ति के समाचारों से परिचित हो चुके थे. शिक्षा पूरी करके फड़के ने 'ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेलवे' और 'मिलिट्री फ़ाइनेंस डिपार्टमेंट', पूना में नौकरी की. उन्होंने जंगल में एक व्यायामशाला बनाई, जहां ज्योतिबा फुले भी उनके साथी थे. यहां लोगों को शस्त्र चलाने का भी अभ्यास कराया जाता था. लोकमान्य तिलक जी ने भी वहां शस्त्र चलाना सीखा था.

जानकारी के लिए बता दें कि 1857 की क्रान्ति के दमन के बाद देश में धीरे-धीरे नई जागृति आई और विभिन्न क्षेत्रों में संगठन बनने लगे. इन्हीं में एक संस्था पूना की 'सार्वजनिक सभा' थी. इस सभा के तत्वावधान में हुई एक मीटिंग में 1870  में महादेव गोविन्द रानाडे जी ने एक भाषण दिया. उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अंग्रेज़ किस प्रकार भारत की आर्थिक लूट कर रहे हैं. इसका फड़के जी पर बड़ा प्रभाव पड़ा. वे नौकरी करते हुए भी छुट्टी के दिनों में गांव-गांव घूमकर लोगों में इस लूट के विरोध में प्रचार करते रहे.

वहीं, 1871 में एक दिन सायंकाल वासुदेव बलवन्त फड़के जी कुछ गंभीर विचार में बैठे थे. बताया जा रहा कि तभी उनकी माता जी की तीव्र अस्वस्थता का तार उनको मिला. इसमें लिखा था कि 'वासु' (वासुदेव बलवन्त फड़के जी) तुम शीघ्र ही घर आ जाओ, नहीं तो मां के दर्शन भी शायद न हो सकेंगे. इस वेदनापूर्ण तार को पढ़कर अतीत की स्मृतिया. वासुदेव बलवन्त फड़के जी के मानस पटल पर आ गई और तार लेकर वे अंग्रेज़ अधिकारी के पास अवकाश का प्रार्थना-पत्र देने के लिए गए.

वहीं, अंग्रेज़ तो भारतीयों को अपमानित करने के लिए सतत प्रयासरत रहते थे. उस अंग्रेज़ अधिकारी ने अवकाश नहीं दिया, लेकिन वासुदेव बलवन्त फड़के जी दूसरे दिन अपने गांव चले आए. वहीं, गांव आने पर वासुदेव जी पर वज्राघात हुआ. जब उन्होंने देखा कि उनका मुंह देखे बिना ही तड़पते हुए उनकी ममतामयी माँ चल बसी हैं. उन्होंने पांव छूकर रोते हुए माता से क्षमा मांगी, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के दुव्यर्वहार से उनका हृदय द्रवित हो उठा.

बताया जा रहा है कि इस घटना के बाद वासुदेव बलवन्त फड़के जी ने नौकरी छोड़ दी और विदेशियों के विरुद्ध क्रान्ति की तैयारी करने लगे. उन्हें देशी नरेशों से कोई सहायता नहीं मिली तो फड़के जी ने शिवाजी का मार्ग अपनाकर आदिवासियों की सेना संगठित करने की कोशिश प्रारम्भ कर दी. वासुदेव बलवन्त फड़के जी ने फरवरी 1879 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी. धन-संग्रह के लिए धनिकों के यहाँ डाके भी डाले. उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया, और उन्हें संगठित करने का प्रयास किया. वहीं, उन्हें नवयुवकों के व्यवहार से आशा की कोई किरण नहीं दिखायी पड़ी.

बता दें कि कुछ दिनों बाद 'गोविन्द राव दावरे' जी तथा कुछ अन्य युवक उनके साथ खड़े हो गए. फिर भी कोई शक्तिशाली संगठन खड़ा होता नहीं दिखायी दिया. तब वासुदेव बलवन्त फड़के जी ने वनवासी जातियों की ओर नजर उठायी और सोचा आखिर भगवान श्रीराम ने भी तो वानरों और वनवासी समूहों को संगठित करके लंका पर विजय पायी थी. महाराणा प्रताप जी ने भी इन्हीं वनवासियों को ही संगठित करके अकबर को नाकों चने चबवा दिए थे. शिवाजी ने भी इन्हीं वनवासियों को स्वाभिमान की प्रेरणा देकर औरंगज़ेब को हिला दिया था.

वहीं, महाराष्ट्र के 7 ज़िलों में वासुदेव बलवन्त फड़के जी की सेना का ज़बर्दस्त प्रभाव फैल चुका था. अंग्रेज़ अफ़सर डर गए थे. इस कारण एक दिन अंग्रेज मंत्रणा करने के लिए विश्राम बाग़ में इकट्ठा हुए थे. वहां पर एक सरकारी भवन में बैठक चल रही थी. 13 मई, 1879 को रात 12 बजे वासुदेव बलवन्त फड़के जी अपने साथियों सहित वहां आ गए. अंग्रेज़ अफ़सरों को मारा तथा भवन को आग लगा दी. उसके बाद अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया. वहीं, दूसरे ही दिन मुम्बई नगर में वासुदेव जी के हस्ताक्षर से  विज्ञापन लगा दिए गए कि जो अंग्रेज़ अफ़सर 'रिचर्ड' का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हज़ार रुपए का इनाम दिया जाएगा. अंग्रेज़ अफ़सर इससे और भी बौखला गए. 

1857  में अंग्रेज़ों की सहायता करके जागीर पाने वाले बड़ौदा के गायकवाड़ के दीवान के पुत्र के घर पर हो रहे विवाह के उत्सव पर वासुदेव बलवन्त फड़के जी के साथी दौलतराम नाइक जी ने पचास हज़ार रुपयों का सामान लूट लिया. इस पर अंग्रेज़ सरकार वासुदेव बलवन्त फड़के जी के पीछे पड़ गई. वे बीमारी की हालत में एक मन्दिर में विश्राम कर रहे थे, तभी 20 जुलाई, 1879 को गिरफ़्तार कर लिये गए. वहीं, वासुदेव बलवन्त फड़के जी पर राजद्रोह का मुकदमा चला और आजन्म कालापानी की सज़ा देकर उन्हें 'अदन' भेज दिया गया.

आज क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के जी के जन्मदिवस पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.

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