स्वतंत्रता संग्राम में न जाने कितने ही ऐसे किस्से और कहानियां हैं जो इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गए हैं. आजादी की बात करें तो सभी को याद है तो एक ही तारीख 15 अगस्त 1947. लेकिन 1943 यानी आजादी से 4 साल पहले आज ही के दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को अंग्रेजों से स्वतंत्रता दिलाई थी. किंतु विडंबना यह है कि आज़ादी के ठेकेदारों ने न तो इस घटना के बारे में बताया और न ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस को वो सम्मान प्राप्त होने दिया जिसके वह हकदार थें. इस महानतम दिवस की सुदर्शन परिवार समस्त राष्ट्रवादियों को हार्दिक बधाई देता है तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस को वंदन करते हुए श्रद्धाजंली समर्पित करता है.
6 नवंबर 1943 का दिन था जब स्वतंत्रता से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों से भारत का एक हिस्सा छीना था, जिसके बाद 29 दिसम्बर 1943 को वहां पहली बार भारतीय तिरंगे को लहराया गया था. भारत का वह हिस्सा जिसे नेताजी ने भारत की स्वतंत्रता से 4 साल पहले ही स्वतंत्र करवा दिया था वो हिस्सा था अंडमान-निकोबार द्वीप समूह. अगर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के इतिहास की बात करें तो 4 शताब्दीयों यानी कि 8वीं से 12वीं तक यह क्षेत्र चोल वंश के शासकों के अधीन था. बता दें कि चोल वंश के शासक अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को अपने नौसैनिकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षण देने के उपयोग में लाते थे.
16वीं शताब्दी के आसपास अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर पुर्तगाली पहुंचे. जिसके बाद 17वीं शताब्दी में मराठाओं ने इस द्वीप समूह पर अपने कदम रखे. जानकारी के अनुलार मराठा शासकों ने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह अपने जहाजों के लिए अस्थायी समुद्री बेस बनाया था. इसी द्वीप समूह से मराठा नौसेना ने ब्रिटिश और पुर्तगालियों को कड़ी चुनौती दी थी. "समुद्र के शिवाजी" नाम से मशहूर इस मराठा नौसेना ने इन अंडमान निकोबार के सभी द्वीपों को भारत में जोड़ा था. तभी से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भारत का अभिन्न हिस्सा है.
देश की गुलामी के साथ ही अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भी गुलामी के चंगुल में घिरते गए. व्यापार की आढ में 1600 के करीब ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के साथ ही अंग्रेजो इस देश को गुलामी की तरफ ढकेलना शुरू कर दिया. अंग्रेजों ने समुद्री तटों पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू की और अंडमान निकोबार द्वीप समूह भी उनमें से एक था. सन 1755 में डेनिश लोग यहां पहुंचे और 1756 तक यहां अपनी कॉलोनी बना ली. जिसके बाद 1789 में अंग्रेजों ने यहां पहुंचकर 1868 तक अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को हथिया लिया.
पूरे देश में अंग्रेजो भारतीयों को कई प्रकार की यातनाएं दी रहे थे. अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी सीमाओं को लांघा दी थी. देश में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा फुट पड़ा था. क्रांतिधर्मियों का टोला खुलकर बगावत के लिए सामने आने लगा था.
इसी के चलते अंग्रेजी हुकुमत ने साल 1896 में यहां एक जेल का निर्माण शुरू कराया. सेल्युलर जेल के नाम से बन रही इस जेल का निर्माण 1906 में पूरा हुआ. यह जेल सात हिस्सों में बंटी थी. क्रांतकारियों को यहीं कैद किया जाता था. वीर सावरकर, पंडित परमानंद, उल्हासकर दत्त, बीरेंद्र कुमार घोष, पृथ्वी सिंह जाद, पुलिन दास, त्रिलोक नाथ चक्रवर्ती और महावीर सिंह जैसे न जाने कितने ही महान क्रांतिकारियों ने यहां काला पानी जैसी सजा काटी थी.
अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों मे जकड़ी भारत मां के एक सच्चे और वीर सपूत के तौर पर नेताजी सुभाष च्रंद्र बोस जी को दर्जा हासिल है. 21 अक्टूबर 1943 के दिन सुभाष चंद्र बोस जी ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में स्वतंत्र भारत की प्रांतीय सरकार बनाई थी. 1942 के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ चुका था. नेताजी ने एशिया के विभिन्न देशों में बसे भारतीयों का सहयोग लेकर 'आजाद हिंद फौज' को संगठित किया था. अंडमान के द्वीपों में आज़ाद हिंद फौज लगता अंग्रेजों से देश की आज़ादी के लिए लड़ रही थी.
जापानी सेना भी अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते 1942 में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह तक आ पहुंची. जापानी सेना का अंडमान-निकोबार द्वीप समूह तक पहुंचना आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए संजीवनी बूटी समान था. कई संघर्षों के बाद 23 मार्च 1942 को जापानी सेना ने अंडमान के द्वीपों को अंग्रेजो के कब्जा से मुक्त करवाया.
जापानियों के साथ नेताजी के संबंध मजबूत थे. नेताजी ने 25 अक्टूबर 1943 को अंग्रेजी सरकार के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी. जापानियों ने वैश्विक परिदृश्य और नेताजी बोस के साथ बन चुके मधुर संबंधो के चलते 6 नवंबर 1943 को अंडमान-निकोबार द्वीपों की कमान नेताजी की अंतरिम सरकार को सौंपी. जिसके बाद 30 दिसंबर 1943 का वो दिन भी आ गया, जब नेताजी ने स्वतंत्र भारत’ के अहम हिस्से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारत का राष्ट्र ध्वज फहराया.