उनका कोई भी दोष नही था, वो सिर्फ धर्म की रक्षा करते थे. किसी को न तो चोट पहुचाते थे और न ही किसी को नुकसान होने देते थे. जरा सोचिए कि क्या ये वजह भी होती है किसी को मार डालने की पर ऐसा हुआ था. सवाल ये भी है कि क्या उस समय के भारत को धर्मनिरपेक्ष कहा जा सकता है जिसमें अपने धर्म का प्रचार करने वाले किसी धर्मरक्षक के सीने को छुरे से चाक कर दिया जाय और उसके बाद उस हत्यारे के साथ उन्मादियों का एक पूरा समूह खड़ा हो जाय ?
उस घटना की चर्चा न करना बता दिया गया धर्मनिपेक्षता और उसकी चर्चा करना घोषित हो गया साम्प्रदायिकता. जरा सोचिए कि किस प्रकार के समाज को बनाना चाह रहे थे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी व उनके पथ अनुसरण करने वाले. कितने लोग जानते होंगे आज बलिदान देने वाले पण्डित लेखराम आर्य जी को. शायद गिने चुने लोगों को छोड़ कर बाकी कोई नही क्योंकि इनकी हत्या करने वाले का नाम मिर्ज़ा है और उस नाम को लेने में भारत के ही हिंदू नामों से जाने जाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों, स्वघोषित मानवाधिकार वालों व स्वरचित कलमकारों के खुद से गढ़े गए सेकुलरिज्म के सिद्धांत खतरे में आ जाते हैं.
इतना ही नही, बाबर , तुगलक तैमूर हुमायु के नहाने और खाने तक को अपनी लेखनी से सजाने वाले कुछ इतिहासकारों की तो ये हालात है कि अगर उनसे पण्डित लेखराम का नाम ले लिया जाय तो वो शायद एक बार फिर से पुरष्कार वापसी का अभियान छेड़ देंगे..ध्यान ये भी रखने योग्य है कि उस समय अहिंसा के नाम पर अंग्रेजों को छूने तक का विरोध करने वाले कुछ बड़े नाम भी पण्डित लेखराम जी की निर्मम हत्या पर कभी शोक तक नही व्यक्त किये.. जन्म - आठ चैत्र विक्रम संवत् 1915 को ग्राम सैदपुर जिला झेलम पश्चिमी पंजाब .
पिता का प.तारा सिंह जी व माता का नाम भागभरी जी (भरे भाग्यवाली]) था. 1850 से 1860 ई. एक एक दशाब्दि में भारत मेंकई नर नामी वीर, जननायक नेता व विद्वान पैदा हुए. यहां ये बताना हमारा कर्त्तव्य है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के हुतात्मा खुदीरामजी का जन्म भी सैदपुर में ही हुआ था. वे भी बड़े दृढ़ आर्यसमाजी थे. आर्यसमाज के विख्यात दानी लाला दीवानचंदजी इसी ग्राम में जन्मे थे. पण्डित जी के दादा का पं.नारायण सिंह जी था. आप महाराजा रणजीत सिंह की सेना के एक प्रसिद्द योध्या थे. आपने मिडिल तक उर्दू फ़ारसी की शिक्षा अपने ग्राम में व पेशावर में प्राप्त की.
फ़ारमुग़लकाल के बाद सी के सभी प्रमाणिक साहित्यिक ग्रन्थों को छोटी सी आयु में पढ़ डाला. अपने चाचा पं.गण्डाराम के प्रभाव में पुलिस में भर्ती हो गए. आप मत, पन्थो का अध्ययन करते रहे. प्रसिद्द सुधारक मुंशी कन्हैयालाल जी के पत्र नीतिप्रकाश से महर्षि दयानन्द की जानकारी पाकर ऋषि दर्शन के अजमेर गए. 17 मई 1881 को अजमेर में ऋषि के प्रथम व अंतिम दर्शन किये, शंका-समाधान किया. उपदेश सुने और सदैव के लिए वैदिक-धर्म के हो गए. उनके व्यवहार से ऐसा लगता है कि मानों बड़े से बड़े संकट को भी वो कोई महत्व नही देते थे. उनके पिताजी की मृत्यु हुई तो भी वे घर में न रुक सके.
बस गए और चल पड़े. उन्हें भाई की मृत्यु की सूचना प्रचार-यात्रा में ही मिली, फिर भी प्रचार में ही लगे रहे. एक कार्यक्रम के पश्चात् दुसरे और दुसरे के पश्चात् तीसरे में इकलौते पुत्र की मृत्यु से भी विचलित न हुए. पत्नी को परिवार में छोड़कर फिर चल पड़े. दिन रात एक ही धुन थी कि वैदिक धर्म का प्रचार सर्वत्र करूं. पंडित लेखराम तो जैसे साक्षात् मृत्यु को ललकारते थे. मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी ने पण्डित जी को मौत की धमकियां देकर वेद-पथ से विचलित करना चाहा महर्षि दयानन्द जी के देहान्त के बाद पंडित लेखराम को लगा कि सरकारी नौकरी और धर्म प्रचार साथ-साथ नहीं चल सकता.
अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी. जब पंजाब में आर्य प्रतिनिधि सभा का गठन हुआ, तो वे उसके उपदेशक बन गये. इस नाते उन्हें अनेक स्थानों पर प्रवास करने तथा पूरे पंजाब को अपने शिकंजे में जकड़ रहे उन्माद को समझने का समय मिल गया.लेखराम जी एक श्रेष्ठ लेखक थे. आर्य प्रतिनिधि सभा ने ऋषि दयानन्द के जीवन पर एक विस्तृत एवं प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार करने की योजना बनायी. यह दायित्व उन्हें ही दिया गया. उन्होंने देश भर में भ्रमण कर अनेक भाषाओं में प्रकाशित सामग्री एकत्रित की. इसके बाद वे लाहौर में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा नहीं हो सका.
पंडित लेखराम जी की यह विशेषता थी कि जहां उनकी आवश्यकता लोग अनुभव करते, वे कठिनाई की चिन्ता किये बिना वहां पहुंच जाते थे. एक बार उन्हें पता लगा कि पटियाला जिले के पायल गांव का एक व्यक्ति हिन्दू धर्म छोड़ रहा है. वे तुरन्त रेल में बैठकर उधर चल दिये पर जिस गाड़ी में वह बैठे, वह पायल नहीं रुकती थी.
इसलिए जैसे ही पायल स्टेशन आया, लेखराम जी गाड़ी से कूद पड़े. उन्हें बहुत चोट आयी. जब उस व्यक्ति ने पंडित लेखराम जी का यह समर्पण देखा, तो उसने धर्मत्याग का विचार ही त्याग दिया. उनके इन कार्यों से मुसलमान बहुत नाराज हो रहे थे. छह मार्च, 1897 की एक शाम जब वे लाहौर में लेखन से निवृत्त होकर उठे, तो एक मुसलमान ने उन्हें छुरे से बुरी तरह घायल कर दिया.
उन्हें तुरन्त अस्पताल पहुंचाया गया पर उनको बचाया नहीं जा सका. आज धर्मरक्षक पण्डित लेखराम जी के बलिदान दिवस पर उनको भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए अश्रुपूरित श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए सुदर्शन परिवार उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है ..