न जाने क्यों बार बार चर्चा में केवल कुछ ही आंदोलन रहे.. अभी नमक आंदोलन, कभी सविनय अवज्ञा आंदोलन कभी खिलाफत आंदोलन. आखिर इस प्रकार के इतिहास को लिखने के पीछे क्या उद्देश्य रहा होगा तथाकथित इतिहास के लेखकों का ये फिलहाल तो समझ से परे ही है. एक बड़ी युद्ध जो पुर्तगाल से लड़ी गई उस के वृतांत को बताने में न जाने क्यों समस्या आ गई कलमकारों को कहीं इसलिए तो नहीं कि ये युद्ध सेना के हथियारों व रक्तरंजित रूप में लड़ी गई जिसमे अहिंसा व चरखे आदि का कोई भी योगदान नही था.
फिलहाल ऐसे सवालों का जवाब देने के बजाय कई इतिहासकार आज कल पुरष्कार आदि लौटाने में व्यस्त हैं जिनके हिसाब से ऐसी युद्ध सामान्य बातें रही होंगी और केवल हिंदू समाज असहिष्णु हो चुका है. उन्होंने शायद ही कभी ऐसे विरोध पुर्तगाली व अंग्रेजो या मुगलों के किए रहे हों, जिनकी बंदूकें हिंदुस्थानी देख कर ही आग उगलने लगती थीं.
खैर ये शायद ही बताया गया हो कि 1947 में कई ऐसे राज्य थे जो स्वतंत्र होने से रह गए थे. कश्मीर एक गलत नीति से वैसे भी स्वतंत्र होने के बाद भी अलग रूप मे ही रहा, लेकिन गोवा परतंत्र ही रहा जिसको स्वतंत्र करवाने की मुहिम आज ही अर्थात 2 दिसंबर 1961 में राष्ट्रवादियों, स्वयंसेवकों ने "गोवा मुक्ति" अभियान" के नाम से छेड़ दी थी.
ये मुहिम कई बलिदान के बाद 19 दिसंबर को अंजाम तक पहुच गई और पुर्तगाली भाग खड़े हुए थे, लेकिन भारतीयों के विद्रोह की ये आग बहुत पहले ही धधक उठी थी और 1947 से ही आक्रोश फैल गया था जो 1961 में जा कर सफल हुआ था. इसमे संघ के स्वयंसेवक सदा अमिट छाप छोड़ गए बिना किसी स्वार्थ व इच्छा के, मात्र देशभक्ति के जुनून से .वास्को-डि-गामा हो या स्पेनिश कोलम्बस, इन सबको इतनी दूर भारत आने के लिए जिस एक चीज ने विवश किया वो थे भारतीय मसाले, यह मसाले जिस जगह पैदा होते थे वो पश्चिमी घाट का तटवर्ती इलाका था.
इसमें भी मालाबार और गोमान्तक इस व्यापार के केंद्र में रहे है. कोलंबस तो कभी भारत नहीं पहुँच पाया, पर वास्को - डि - गामा का बेड़ा सन 1498 में भारत पहुँच गया, जिसके बाद पुर्तगालियों का भारत में लगातार आना जाना लगा रहा. इन व्यापारिक यात्राओं ने शीघ्र ही राज्य विस्तार का रूप ले लिया.
इसी के बाद का इतिहास पुर्तगालियों और मालाबार - गोमान्तक की जनता के संघर्ष का इतिहास हैं। जमोरिन, अब्बक्का महादेवी आदि कितने ही भारतीय नायकों ने जमकर पुर्तगालियों से लोहा लिया पर गोवा समेत कुछ इलाका पुर्तगालियों के हाथ में लग गया.
उन्नीसवी शताब्दी तक यूरोप की कालोनी बन चुके भारत में स्वतंत्रता की चेतना 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से ही आ गयी, पर फलीभूत ठीक 90 साल बाद 1947 में ही हो पायी। इस स्वतंत्रता में भी पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के साथ-साथ ही फ्रेंच और पुर्तगाली कालोनियों की गुलामी की भी समस्या थी.
लगातार बातचीत व जनप्रयासों से साल 1956 तक फ्रेंच कालोनियों की तो भारत में विलय की सहमति या विलय की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी, पर पुर्तगाली हठधर्मिता के कारण ऐसा गोमान्तक क्षेत्र मे नहीं हो पाया ..सन 1932 में सलाज़ार के सत्ता सम्भालने के बाद ही पहले से लागू सेंसरशिप गोवा में और मजबूत हो गयी.
गोवा में पुर्तगालियों की नीति के विरुद्ध जाने पर बेइंतहा जुल्म की आंधी चल पड़ी, जिसके कारण पिछले 100 वर्षों से शांत रहे गोवा में राष्ट्रवाद की नींव पुख्ता होने लगी। साल 1946 में डॉ जुलियो मेनिंजेस ने अपने सहपाठी और हिंदुस्तानी मेनलैंड के बड़े सोशलिस्ट डॉ राममनोहर लोहिया को बुलाकर स्वतंत्रता के लिए बड़ी रैली की जिसमे बाद में लोहिया जी ने सविनय अवज्ञा (सिविल डिसोबेड़ियेन्स) का आह्वान किया.