सावित्रीबाई फुले जी एक ऐसा नाम जिसने संघर्षों के साथ समाज की एक ऐसी जंजीर को तोड़ा जो कि महिलाओं के साथ भेदभाव करती थी. जहां पहले एक ओर हमारे देश में पुरुषों को ही शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति दी जाती थी, लेकिन दूसरी ओर सभी पुराने जंजीरों को तोड़ते हुए महिलों को शिक्षा देने के उद्देश्य से समाज के सामने एक आदर्श व्यक्तित्व आया वो है हमारे देश की सबसे पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले जी.
सावित्रीबाई फुले जी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए ही नही, बल्कि उस समय समाज में व्याप्त छुआ-छूत, बाल विवाह, सती प्रथा और विधवा विवाह जैसी कुरीतियों का भी विरोध किया और इनके खिलाफ जीवन भर संघर्ष करती रहीं. शिक्षा ये एकमात्र ऐसा हथियार है, जिससे हम अपना व्यक्तिगत विकास और राष्ट्र विकास कर सकते. वैसे तो आज उनके पुण्यतिथि पर हम उनसे जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें बता रहे है, चलिए जानते है.
सावित्रीबाई फुले जी का जन्म 03 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा के नायगांव में एक किसान परिवार में हुआ था. उन्हें देश में महिला शिक्षा की अगुआ कहा जाता है. उन्होंने अपना पूरा जीवन महिला कल्याण में लगा दिया. उनकी गिनती देश की सबसे पहली आधुनिक नारीवादियों में होती है. सावित्रीबाई फुले जी टीचर होने के साथ-साथ एक समाज सुधारक, दार्शनिक और कवयित्री भी थीं. उनकी कविताएं अधिकतर प्रकृति, शिक्षा और जाति प्रथा को खत्म करने पर केंद्रित होती थीं.
1840 में महज 9 साल की उम्र में उनका विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ था. शादी के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं. उस समय शिक्षा पर केवल पुरुषों का अधिकार माना जाता था. समाज की इस सोच के बावजूद सावित्रीबाई फुले जी ने शिक्षा हासिल की. शुरू में जब वह स्कूल जाती थीं, तो उन्हें पत्थर मारे जाते थे और उनके ऊपर कूड़ा-कचरा फेंका जाता था. जिस समय लड़कियों की पढ़ाई को पाप माना जाता था, उस समय देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल सावित्रीबाई फुले जी और उनके पति ज्योतिराव ने 1848 में पुणे में खोला था. इसके बाद इन दोनों ने मिलकर लड़कियों के लिए 17 और स्कूल खोले.
उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर 1853 में ऐसी पीड़िताओं के लिए ''बालहत्या प्रतिबंधक गृह'' नाम से पुणे स्थित अपने घर पर ही एक देखभाल केंद्र खोला, ताकि उनके बच्चों की सुरक्षित डिलिवरी कराई जा सके. सावित्रीबाई फुले जी ने प्रेग्नेंट रेप विक्टिम और बाल विधवाओं की दयनीय स्थिति में सुधार के लिए बहुत प्रयास किए, जिन्हें समाज ने आत्महत्या के लिए छोड़ दिया था. साथ ही उन्होंने विधवाओं के हक की लड़ाई के लिए नाइयों के खिलाफ एक हड़ताल का आह्वान किया, ताकि वे विधवाओं का मुंडन न कर सकें, जो उस समय की एक कुप्रथा थी.
सावित्रीबाई फुले जी ने बच्चों को पढ़ाई करने और स्कूल छोड़ने से रोकने के लिए एक अनोखा प्रयास किया. वह बच्चों को स्कूल जाने के लिए वजीफा देती थीं. ऐसे समय में जब देश में जाति प्रथा अपने चरम पर थी उन्होंने अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा दिया. उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर सितंबर 1873 में 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की, जो बिना पुजारी और दहेज के विवाह आयोजित करता था. इस समाज की स्थापना का उद्देश्य कम खर्च में शादी कराना, अंतरजातीय विवाह, बाल विवाह को खत्म करना और विधवा पुनर्विवाह था.
सावित्रीबाई फुले जी और ज्योतिराव की अपनी कोई संतान नहीं थी, उन्होंने एक विधवा के बेटे यशवंत को गोद लिया था, जो आगे चलकर डॉक्टर बना. पुणे में 1897 में प्लेग महामारी फैली था और इसी महामारी की वजह से ही 66 वर्ष की उम्र में सावित्रीबाई फुले जी का 10 मार्च 1897 को पुणे में ही निधन हो गया था. सावित्रीबाई फुले जी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए ही काम नहीं किया, बल्कि वह समाज में व्याप्त भ्रष्ट जाति प्रथा के खिलाफ भी लड़ीं. जाति प्रथा को खत्म करने के अपने जुनून के तहत उन्होंने अछूतों के लिए अपने घर में एक कुआं बनवाया था. बता दें कि आज ही के दिन 1897 में देश की पहली महिला टीचर सावित्रीबाई फुले जी का निधन हुआ था.