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क्या न्यायालय सत्य और न्याय से भी ऊपर हो गया है?

लेखक: डॉ. सुरेश चव्हाणके, मुख्य संपादक, सुदर्शन न्यूज़

Dr. Suresh Chavhanke
  • Apr 21 2025 10:16AM

 

जब एक आम नागरिक न्याय की तलाश में अदालत की चौखट पर पहुंचता है, तो वह केवल निष्पक्षता और सत्य की उम्मीद करता है। परंतु आज, न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं। क्या न्यायालय अब स्वयं को संसद, राष्ट्रपति और जनता से भी ऊपर मानने लगा है? क्या यह लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के साथ न्याय है?

 

न्यायपालिका बनाम लोकतंत्र: एक टकराव

भारत का संविधान तीन स्तंभों पर आधारित है: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों के बीच संतुलन बनाए रखना लोकतंत्र की नींव है। परंतु हाल के वर्षों में न्यायपालिका के कुछ निर्णयों ने इस संतुलन को चुनौती दी है।


 

1. 

नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) का खारिज होना

2015 में, संसद ने 99वें संविधान संशोधन के माध्यम से NJAC की स्थापना की, जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना था। इसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका और दो “प्रख्यात व्यक्तियों” की भागीदारी थी। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया, यह कहते हुए कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता है।

 

2. 

अनुच्छेद 370 का निरसन 

 2019 में, केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त किया। यह निर्णय संसद द्वारा पारित किया गया और राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2023 में इस निर्णय को वैध ठहराया।

3. 

तमिलनाडु में राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्न

तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित 10 विधेयकों पर राज्यपाल RN रवि ने वर्षों तक कोई निर्णय नहीं लिया। अप्रैल 2025 में, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की इस निष्क्रियता को “अवैध और मनमाना” करार दिया।


 

4. 

नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) पर लंबित मामला

 

CAA, 2019 को संसद ने पारित किया और राष्ट्रपति ने स्वीकृति दी। परंतु सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ 200 से अधिक याचिकाएं लंबित हैं, और अब तक कोई अंतिम निर्णय नहीं हुआ है।


 

5. 

कृषि कानूनों पर न्यायिक हस्तक्षेप


2020 में पारित तीन कृषि कानूनों पर किसानों के विरोध के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2021 में इन कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी और एक समिति का गठन किया। यह समिति दो महीने में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाली थी, परंतु सरकार ने नवंबर 2021 में इन कानूनों को निरस्त कर दिया।

 

6. 

नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

2016 में सरकार ने ₹500 और ₹1000 के नोटों को बंद करने का निर्णय लिया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2023 में 4:1 के बहुमत से इस निर्णय को वैध ठहराया।


7. 

वक्फ बोर्ड: एकतरफा विशेषाधिकार और न्यायपालिका की चुप्पी?

भारत में वक्फ संपत्तियों से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यही है — क्या एक धर्म के लिए विशेष संपत्ति अधिकार संविधान की भावना के खिलाफ नहीं हैं?


वक्फ अधिनियम, 1995 के तहत देशभर में लाखों एकड़ ज़मीन वक्फ बोर्डों के अधीन है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में वक्फ संपत्तियाँ 6 लाख एकड़ से भी अधिक हैं, जिसकी कीमत 1.2 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा आँकी गई है।


इन संपत्तियों पर किसी प्रकार का सरकारी नियंत्रण या पारदर्शिता नहीं है। न किसी ऑडिट का स्पष्ट ढांचा, न किसी लोकपाल की निगरानी। सवाल यह उठता है कि क्या यह ‘सेक्युलर’ संविधान के अनुरूप है?


जब हिंदू मंदिरों का प्रशासन राज्य सरकारें अपने अधीन रखती हैं — जैसे कि तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश में, तो फिर मुस्लिम वक्फ बोर्ड स्वायत्त कैसे?


क्या यह समानता का उल्लंघन नहीं है?

क्या यह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण नहीं है?

और सबसे अहम — जब संसद इस विषय में कानून लाती है या संशोधन करती है, तो अदालत इसमें दखल क्यों देती है?


 

8. 

इंदिरा गांधी और कांग्रेस द्वारा न्यायपालिका का दुरुपयोग

1975 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी ठहराया और उनके लोकसभा चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया। इसके बाद, इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल घोषित किया, जिसमें नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया और विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया।


इस दौरान, न्यायपालिका पर दबाव डाला गया और न्यायाधीशों की नियुक्तियों में हस्तक्षेप किया गया। यह स्पष्ट रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता के खिलाफ था और लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा था।


 

निष्कर्ष: न्यायपालिका की भूमिका पर पुनर्विचार

उपरोक्त घटनाएं यह संकेत देती हैं कि न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर पुनर्विचार की आवश्यकता है। न्यायपालिका का उद्देश्य न्याय प्रदान करना है, न कि नीति निर्माण में हस्तक्षेप करना। यदि न्यायपालिका स्वयं को अन्य संवैधानिक संस्थाओं से ऊपर मानने लगे, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा बन सकता है।


 

समाधान: संतुलन की पुनर्स्थापना

  1. न्यायपालिका की पारदर्शिता बढ़ाना: न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए NJAC जैसे प्रावधानों पर पुनर्विचार आवश्यक है।
  2. संवैधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश होने चाहिए।
  3. जनता की भागीदारी: लोकतंत्र में जनता की भूमिका सर्वोपरि है। न्यायपालिका को जनता की आकांक्षाओं का सम्मान करना चाहिए।



 

अंतिम प्रश्न: क्या यह लोकतंत्र है?

जब संसद कानून बनाए, राष्ट्रपति उस पर मुहर लगाए, और फिर भी न्यायपालिका उसे रोक दे, तो क्या यह लोकतंत्र है? नहीं, यह लोकतंत्र नहीं है। यह उस संविधान का उल्लंघन है, जिसकी शपथ लेकर न्यायपालिका कार्य करती है।


जागो भारत, उठो भारत।

लोकतंत्र को न्याय के नाम पर छीनने की साजिश को पहचानो।

क्योंकि अगर आज नहीं बोले, तो कल आपको बोलने का हक भी नहीं मिलेगा।


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