राजपूत वीरता और शौर्य की जब भी बात होती है, तो राणा सांगा जी का नाम गर्व से लिया जाता है। एक ऐसा योद्धा जिसने न सिर्फ अपने समय के बड़े-बड़े दुश्मनों को टक्कर दी, बल्कि शरीर के कई अंग खोने के बावजूद भी कभी हार नहीं मानी।
राणा सांगा जी, जिनका असली नाम महाराणा संग्राम सिंह था, मेवाड़ के महान शासक थे। उनका जन्म 12वीं शताब्दी के अंत में हुआ और उन्होंने अपने जीवनकाल में करीब 36 युद्ध लड़े। खास बात यह है कि उन्होंने इनमें से अधिकतर युद्ध जीतकर राजपूताने की सीमाओं को और मज़बूत किया।
मेवाड़ के इस महान शासक ने 16वीं सदी में उत्तर भारत की राजनीति को नई दिशा दी। कहा जाता है कि राणा सांगा जी ने अपने जीवन में 80 से अधिक गंभीर ज़ख्म सहे, एक हाथ और एक पैर युद्ध में गंवाए, एक आंख की रोशनी खोई, लेकिन फिर भी रणभूमि में दुश्मनों के सामने डटे रहे।
1527 में बाबर और राणा सांगा जी के बीच खानवा का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। यह युद्ध भारत के भविष्य के लिए निर्णायक साबित हुआ। बाबर के पास उन्नत तोपखाना और विदेशी रणनीति थी, जबकि राणा सांगा ने हिंदू राजाओं का एक बड़ा गठबंधन खड़ा किया।
इस युद्ध में राणा सांगा जी बुरी तरह घायल हुए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। कहा जाता है कि वह एक हाथ से तलवार चलाते हुए अंतिम दम तक लड़े। दुर्भाग्यवश, यह युद्ध बाबर की जीत में समाप्त हुआ, लेकिन राणा सांगा की वीरता को कोई मिटा नहीं सका।
राणा सांगा जी का उद्देश्य सिर्फ अपने राज्य की रक्षा करना नहीं था। वह चाहते थे कि भारत विदेशी आक्रांताओं से मुक्त हो। उन्होंने दिल्ली की गद्दी पर राजपूत सत्ता स्थापित करने का सपना देखा, और उसके लिए कई युद्ध लड़े।
हालांकि उनका सपना अधूरा रह गया, लेकिन उनका संघर्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बन गया।आज भी राजस्थान और मेवाड़ की धरती पर राणा सांगा की गाथाएं बच्चों को सुनाई जाती हैं। वह न सिर्फ एक योद्धा थे, बल्कि नेतृत्व, त्याग और संकल्प के प्रतीक भी थे। राणा सांगा जी हमें सिखाते हैं कि जब हौसला बुलंद हो, तो शरीर की सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं।