भारत के इतिहास में कई वीर योद्धा हैं, जोकि राणा सांगा जी का नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है। राणा सांगा जी मेवाड़ के सिसोदिया वंश के राजा थे, जिन्होंने 16वीं शताब्दी की शुरुआत में राजस्थान और उत्तर भारत की राजनीति को एक नई दिशा दी। वह न सिर्फ एक महान सेनापति थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार और अपने धर्म व संस्कृति के प्रति अत्यंत समर्पित शासक भी थे।
राणा सांगा जी के शरीर पर युद्धों के दौरान 80 घाव लगे थे। उनकी एक आंख युद्ध में चली गई थी, एक हाथ कट चुका था और एक टांग लकवाग्रस्त थी, लेकिन इसके बावजूद वे रणभूमि में डटे रहे और अपने शौर्य से दुश्मनों के दिलों में खौफ भर दिया। उनकी वीरता को देखकर उनके सैनिकों में जोश भर जाता था। इतिहास गवाह है कि उन्होंने अपने अपंग शरीर से भी कई युद्धों का नेतृत्व किया और जीत दर्ज की।
राणा सांगा जी ने न केवल अपने राज्य मेवाड़ की रक्षा की, बल्कि उसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मालवा और राजस्थान के बड़े हिस्सों तक फैला दिया। उन्होंने दिल्ली सल्तनत और मालवा के मुस्लिम शासकों के खिलाफ कई निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ीं। खास तौर पर उन्होंने अफगान शासकों को कई बार पराजित किया और उत्तर भारत में राजपूतों की सत्ता को मजबूत किया।
1527 में राणा सांगा और मुग़ल शासक बाबर के बीच खानवा का ऐतिहासिक युद्ध हुआ। यह युद्ध भारत के इतिहास का टर्निंग पॉइंट माना जाता है। राणा सांगा ने एक विशाल राजपूत संघ तैयार किया था, जिसमें मारवाड़, अम्बेर, बूंदी और दूसरे छोटे-बड़े राज्यों के राजा शामिल थे। हालांकि यह युद्ध राणा सांगा हार गए, लेकिन उनकी वीरता ने उन्हें अमर कर दिया। बाबर को यह युद्ध जीतने के लिए तोपों और अत्याधुनिक हथियारों का सहारा लेना पड़ा, और फिर भी उसे भारी नुकसान झेलना पड़ा।
इतिहासकार मानते हैं कि खानवा की लड़ाई में राणा सांगा की हार का मुख्य कारण युद्ध के समय उनके सेनापति शिलादित्य का विश्वासघात था। यदि यह विश्वासघात न हुआ होता, तो शायद इतिहास कुछ और होता। युद्ध के बाद राणा सांगा ने फिर से सेना संगठित करनी चाही, लेकिन वह जहर दिए जाने के कारण असमय मृत्यु को प्राप्त हुए।
राणा सांगा की गाथा न केवल राजस्थान बल्कि पूरे भारत में वीरता, त्याग और देशभक्ति की मिसाल है। उनके साहस और रणनीति का असर आज भी लोगों को प्रेरणा देता है।