भारत का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिसमें देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ अदम्य साहस, वीरता, धैर्य और दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन किया. ऐसे कुछ ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में स्थान दिया गया, जबकि अधिकतर को उचित पहचान नहीं मिल सकी. इसके कारण मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले वीर स्वतंत्रता सेनानी भी गुमनामी में चले गए. आज यानी 31 दिसंबर को महान स्वतंत्रता सेनानी और हिंदू रक्षक विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े जी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें बारंबार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए जन जन तक पहुंचाने का संकल्प लेता है.
विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े जी का जन्म 24 जून 1863 को बॉम्बे प्रेसीडेंसी के रायगढ़ के वरसाई गांव में हुआ था. वे एक इतिहासकार और लेखक थे. उन्हें मराठा इतिहास के अग्रणी शिक्षकों में से एक माना जाता है. वे इतिहास पर अपने कई कार्यों के लिए जाने जाते हैं. वे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले सबसे प्रमुख इतिहासकारों में से एक थे.
पुणे में राजवाड़े जी का प्राथमिक शिक्षण शनिवार पेठ की पाठशाला में हुआ. बाबा गोखले की पाठशाला, विष्णुकांत चिपलूणकर के न्यू स्कूल और फिर बाद में मिशन स्कूल से उन्होंने माध्यमिक की शिक्षा पूरी की. 1882 में राजवाड़े ने मैट्रिकुलेशन किया. आगे की शिक्षा के लिए बॉम्बे के एल्फ़िंस्टन कॉलेज में दाख़िला लिया पर धनाभाव के कारण वे अध्ययन जारी नहीं रख पाये. बाद में पुणे में पब्लिक सर्विस सेकण्ड ग्रेड परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों को पढ़ा कर उन्होंने धनोपार्जन किया और डेक्कन कॉलेज में आगे की पढ़ाई के लिए नाम दर्ज कराया.
यद्यपि कॉलेज के पाठ्यक्रम में लगी पाठ्यपुस्तकों से राजवाड़े जी कभी संतुष्ट नहीं हुए, फिर भी रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर, जो तब पुणे के डेक्कन कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे और न्यायकोशकर्ता म.म. झलकीकर जैसे विद्वानों के सान्निध्य में उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा. अपनी रुचि के विषयों इतिहास, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र का अध्ययन करते हुए राजवाड़े जी ने 1891 में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसी दौरान 1988 में उनका विवाह हुआ, गृहस्थी की ज़िम्मेदारी हेतु स्नातकोपरांत उन्होंने पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू किया, पर पत्नी की मृत्यु हो जाने बाद उन्होंने 1893 में नौकरी छोड़ दी.
प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज तक की उच्च शिक्षा से संबंधित अपने अनुभव को विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े जी ने ग्रंथमाला मासिक पत्रिका में ‘कनिष्ठ, मध्यम व उच्च शालान्तीत स्वानुभव’ (प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्चशालाओं के मेरे अनुभव) शीर्षक निबंध द्वारा प्रस्तुत किया. इस रचना में उन्होंने शिक्षा के व्यावसायिक हितों को सामाजिक उत्तरदायित्वों पर वरीयता देने की तत्कालीन परम्परा की कठोर आलोचना की. 1894 में अनुवाद आधारित 'भाषान्तर' नामक मराठी पत्रिका सम्पादित करने के अलावा 1910 में उन्होंने पुणे में भारत इतिहास संशोधक मण्डल की स्थापना की और अपने द्वारा इकट्ठे किये गये ऐतिहासिक स्रोतों, कृतियों और स्वयं द्वारा किये गये ऐतिहासिक कायों को मण्डल के सुपुर्द कर दिया.
विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े जी हिंदूवाद के कद्दावर रक्षक होने के साथ-साथ उसके कट्टर आलोचक भी थे. हिंदूवाद को वे सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था मानते थे. छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती के अवसर पर 1911 में तिलक के पत्र केसरी में लिखते हुए उन्होंने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का समर्थन किया और इसे सामाजिक संगठन का उत्तम रूप बतलाया. राजवाड़े जी ने हमेशा मराठी भाषा-भाषी लोगों के उत्तरदायित्व और कर्तव्यों को सामूहिक रूप से महाराष्ट्र धर्म के रूप में व्यक्त किया और उसकी उन्नति के लिए उसपर ज़ोर दिया.
एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भाषा की विरासत की रक्षा करने की कोशिश करने वाले व्यक्ति के शुरुआती ज्ञात उदाहरणों में से एक है. राजवाड़े जी, जो एक लोकप्रिय इतिहासकार थे, ने अपने विवेकपूर्ण व्यवहार के माध्यम से अपनी संस्कृति और विरासत को संजोकर रखने का गुण सिखाया.हिंदू रक्षक विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े जी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें बारंबार नमन करते हुए उनकी यशगाथा को सदा सदा के लिए जन जन तक पहुंचाने का संकल्प लेता है.