आजादी के ठेकेदारों ने जिस वीर के बारे में नहीं बताया होगा , बिना खड्ग बिना ढाल के आजादी दिलाने की जिम्मेदारी लेने वालों ने जिसे हर पल छिपाने और सदा के लिए मिटाने की कोशिश की. उन्हीं लाखों सशत्र क्रांतिवीरों में से एक हैं लाला हरदयाल जी, जिनकी पुण्यतिथि है. इस क्रांतिवीर शायद ही उस परिवार में से कोई जानता होगा जिसके हिसाब से हर बलिदान उसी के परिवार के आस पास घूमता है. आज उस वीर बलिदानी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि कोटि नमन करता है और उनकी शौर्य गाथा को समय समय पर जन मानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.
देश को स्वतन्त्र कराने की धुन में जिन्होंने अपनी और अपने परिवार की खुशियों को बलिदान कर दिया, ऐसे ही एक क्रान्तिकारी थे 14 अक्तूबर, 1884 को दिल्ली में जन्मे लाला हरदयाल जी. इनके पिता श्री गौरादयाल जी तथा माता श्रीमती भोलीरानी जी थीं. लाला हरदयाल जी पठाई में बहुत अच्छे थे, उन्होंने अपनी सभी परीक्षाएं सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं. बीए में तो उन्होंने पूरे प्रदेश में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था. 1905 में शासकीय छात्रवृत्ति पाकर वो पठाई के लिए विदेश की आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चले गए. उन दिनों लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा का ‘इंडिया हाउस’ भारतीय छात्रों का मिलन केन्द्र हुआ करता था.
बंग-भंग के विरोध में हुए आन्दोलन के समय अंग्रेजों ने जो अत्याचार किए, उसे सुनकर हरदयाल जी बेचैन हो उठे थे. उन्होंने पढ़ाई अधूरी छोड़ दी और लन्दन आकर वर्मा जी के ‘सोशियोलोजिस्ट’ नामक मासिक पत्र में स्वतन्त्रता के पक्ष में लेख लिखना शुरू कर दिया. विदेश में रहकर लाला हरदयाल जी का मन भारत आने को छटपटा रहा था. वे विवाहित थे और उनकी पत्नी सुन्दररानी जी भी उनके साथ विदेश गयी थी. भारत लौटकर 23 वर्षीय हरदयाल जी ने अपनी गर्भवती पत्नी से सदा के लिए विदा ले ली और अपना पूरा समय स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयास में लगाने लगे.
लाला हरदयाल जी सरकारी विद्यालयों एवं न्यायालयों के बहिष्कार तथा स्वभाषा और स्वदेशी के प्रचार पर जोर देते थे. इससे पुलिस एवं प्रशासन उन्हें अपनी आंख का कांटा समझने लगी. जिन दिनों वे पंजाब के अकाल पीडितों की सेवा में लगे थे, तब शासन ने उनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया. जब लाला लाजपतराय जी को इसके बारे में पता लगा, तो उन्होंने हरदयाल जी को भारत छोड़ने का आदेश दे दिया. जिसके बाद वे फ्रान्स चले गए. फ्रान्स में उन दिनों मादाम कामा, श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा सरदार सिंह राणा भारत की क्रान्तिकारी गतिविधियों को हर प्रकार से सहयोग दे रहे थे.
हरदयाल जी को सम्पादक बनाकर इटली के जेनेवा शहर से ‘वन्देमातरम्’ नामक अखबार निकाला गया. इस अखबार विदेशों में बसे भारतीयों के बीच स्वतन्त्रता की अलख जगाने में बड़ी भूमिका निभायी. 1910 में हरदयाल जी सेनफ्रान्सिस्को (कैलिफोर्निया) में अध्यापक बन गए. दो साल बाद वे स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा हिन्दू दर्शन के प्राध्यापक नियुक्त हुए; पर उनका मुख्य ध्येय क्रान्तिकारियों के लिए धन एवं शस्त्र की व्यवस्था करना था. 23 दिसम्बर, 1912 को लार्ड हार्डिंग पर दिल्ली में बम फेंका गया. उस काण्ड में हरदयाल जी को भी पकड़ लिया गया था.
हरदयाल जी जमानत देकर स्विटजरलैंड, जर्मनी और फिर स्वीडर चले गए. 1927 में लन्दन आकर उन्होंने हिन्दुत्व पर एक ग्रन्थ की रचना की. अंग्रेज जानते थे कि भारत की अनेक क्रान्तिकारी घटनाओं के सूत्र उनसे जुड़ते हैं; पर हरदयाल जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आ रहे थे. 1938 में शासन ने उन्हें भारत आने की अनुमति दी. लेकिन हरदयाल जी इस षड्यन्त्र को समझ गए और वापस नहीं आए. अतः अंग्रेजों ने उन्हें वहीं धोखे से जहर दिलवा दिया, जिससे 4 मार्च, 1939 को फिलाडेल्फिया में उनका देहान्त हो गया. इस प्रकार मातृभूमि को स्वतन्त्र देखने की अधूरी अभिलाषा लिए इस क्रान्तिवीर ने विदेश में ही प्राण त्याग दिए.
हरदयाल जी अपने पूरे जिवन में एक बार भी अपनी उस प्रिय पुत्री का मुंह नहीं देख पाए, जिसका जन्म उनके घर छोड़ने के कुछ समय बाद ही हुआ था. आज उस वीर बलिदानी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि कोटि नमन करता है और उनके शौर्य गाथा को समय समय पर जन मानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है