बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक थे 'अरविन्द घोष' जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता और विचारक थे. उनकी जीवनी एक महान योगी, दार्शनिक, और स्वतंत्रता सेनानी की कहानी है. जिन्होंने अपने जीवन में सत्य, नैतिकता, और राष्ट्रभक्ति के मूल्यों को आत्मसात किया. उनका योगदान आज भी हमें एक सशक्त, एकत्रित और उन्नत भारत की दिशा में प्रेरित करता है. स्वतंत्रता सेनानी, दार्शनिक और सुधारक अरविन्द घोष जी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करते हुए, उनकी गाथा को समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प दोहराता है.
महर्षि अरविंद घोष जी का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट स्कूल से प्राप्त की. इसके बाद, 1879 में उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैंड गए. लंदन में सेंट पॉल स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और आई.सी.एस. की परीक्षा की तैयारी शुरू की. हालांकि, उन्होंने घुड़सवारी की परीक्षा नहीं दी, जिसके कारण वे सिविल सेवा में नहीं शामिल हो सके.
भारत लौटने के बाद, अरविंद घोष ने कल्याणी अश्रम की स्थापना की, जहां उन्होंने विद्यार्थियों को शिक्षा, साहित्य और आध्यात्मिकता के माध्यम से प्रेरित किया. 1902 में अहमदाबाद कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से मिलने के बाद, वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गए. तिलक के प्रभाव में आकर उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेने का संकल्प लिया.
1916 में अरविंद ने कांग्रेस से फिर से जुड़कर लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल के साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष तेज किया। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और उनके विचारों ने पूरे देश में जोश भर दिया। उनके योगदान ने भारत की राष्ट्रीयता को प्रगति और मजबूती दी.
1906 में बंग-भग आंदोलन के दौरान अरविंद ने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर रुख किया और इसी समय उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने "वन्दे मातरम्" को एक प्रेरणास्त्रोत के रूप में प्रस्तुत किया, जो स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक शक्तिशाली उत्साह का स्रोत बन गया.
अरविंद घोष जी अपनी सशक्त भाषा और विचारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे. उन्होंने "आनंदमठ" और "योगदान" जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया. ब्रिटिश सरकार के अन्याय के खिलाफ उन्होंने अपना विरोध दर्ज किया और इसके लिए उन्हें मुकदमा झेलना पड़ा, लेकिन वे बरी हो गए। 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उनके नाम का जुड़ाव क्रांतिकारी आंदोलन से हुआ और 1908-09 में अलीपुर बमकांड मामले में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला.
मुकदमा चलने के बाद अरविंद घोष जी को जेल में डाला गया और अलीपुर जेल में उन्हें रखा गया. यहां से उनका जीवन पूरी तरह बदला और वे यहां साधना और तप करने लगे. उनके विचारशील दृष्टिकोण ने धर्म और राष्ट्र के बीच संबंध को मजबूत किया. स्वतंत्रता संग्राम के बाद अरविन्द घोष ने अपने आध्यात्मिक दृष्टिकोण के लिए भी प्रसिद्धी प्राप्त की और उन्होंने आश्रम विचार और योग के माध्यम से लोगों को मार्गदर्शन किया. अरविन्द घोष का दृष्टिकोण धार्मिकता और राष्ट्रवाद की ओर था . उन्होंने "धर्ममहात्म्य" के माध्यम से धर्म और राष्ट्र के बीच संबंध को महत्वपूर्ण बनाया. उनका यह विचारशील दृष्टिकोण आज भी लोगों को प्रेरित करता है. वहीं, जब वे जेल से बाहर आए, तो आंदोलन से नहीं जुड़े और 1910 में पुड्डचेरी चले गए और यहां उन्होंने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की. यहां उन्होंने अरविंद आश्रम ऑरोविले की स्थापना की थी और काशवाहिनी नामक रचना की.
महर्षि अरविंद घोष जी एक महान योगी और दार्शनिके थे. उन्होंने योग साधान पर कई मौलिक ग्रंथ लिखे. वहीं, कहा जाता है कि निधन के चार दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बनी रही, जिसकी वजह से उनका अतिम संस्कार नहीं किया गया और 9 दिसंबर 1950 को उन्हें आश्रम में ही समाधि दी गई.