नकली कलमकारों व चाटुकार इतिहासकारों द्वारा भले ही तमाम वीर व वीरांगनाओं के इतिहास को आम जनता ने जैसे तैसे छीन कर खुद से ही याद रखा हो और सच्चे सूरमाओं को विस्मृत नहीं होने दिया हो, लेकिन अभी भी तमाम ऐसे गद्दारों के नाम सामने आने बाकी हैं जिनकी गद्दारी की कीमत भले ही अंग्रेजो ने उन्हें मुहमांगी दी जो पर दुष्परिणाम न सिर्फ पूरे राष्ट्र, सभ्यता व संस्कृति को झेलनी पड़ी बल्कि इतिहास तक को रोना पड़ा है.
उदाहरण के लिए भगत सिंह जी के खिलाफ गवाही किन किन भारतीयों ने दी ? क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल जी के खिलाफ खड़ा हुआ वकील किस का रिश्तेदार था ? चंद्रशेखर आज़ाद जी को घेर कर मारने वाला हिंदुस्तानी पुलिस अफसर कौन था व आज जन्म लेने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जी के खिलाफ मुखबिरी करने वाला खानदान या परिवार कौन था ?
ये वो पावन प्रतिमूर्तियां हैं जो अपनी गौरवगाथा से संसार को प्रकाशित कर के चली गई. ये वो पावन शौर्यपुंज हैं जिनकी धमक से ब्रिटिश धरती तक हिल गई थी और इनके साथ इतिहास के नकली झोलाछाप लेखकों ने अन्याय किया क्योकि जिनका अधिकार स्वर्णिम स्याही से लिखे जाने का था उनको नीली स्याही से भी उचित सम्मान नहीं दिया गया जबकि आज़ादी की सारी ठेकेदारी के एक ही परिवार के आस पास ला कर रख दी गई.
आईये जानते हैं भारत की आजादी की सशत्र क्रांति की ज्वाला में स्वाहा हुए तमाम नामो में सबसे प्रमुखों में से एक रानी लक्ष्मीबाई जी के बारे में. ज्ञात हो कि लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी राज्य की रानी थीं और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले वीरों में से एक थी.
वे ऐसी वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गई परंतु जीते जी अंग्रेजों को अपने राज्य झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया. लक्ष्मीबाई का जन्म महादेव शिव की नगरी वाराणसी जिले में आज अर्थात 19 नवंबर 1828 को हुआ था. उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे. उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे. उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे. जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया.
उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे. मां के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए. वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया और लोग उसे प्यार से “छबीली” कहने लगे. वैदिक शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गई.सन 1842 में मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झांसी की रानी बन गई और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया. सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की पारपत हुई पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गई.
उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था. स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गई. उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवंबर 1853 को गंगाधर राव परलोक सिधार गए. उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया.ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झांसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नीति के तहत झांसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया.
हालांकि रानी लक्ष्मीबाई ने अंगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया. अंग्रेजों ने झांसी राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया.
अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा. 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया. रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झांसी की रक्षा करने का निश्चय किया. क्रूर और अत्याचारी अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया. इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया. झांसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में रानी का साथ दिया. लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया.
अंग्रेजों के खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई की जंग में कई और अपदस्त और अंग्रेजी हड़प नीति के शिकार राजाओं जैसे बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे जी आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे. सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झांसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में शहर को घेर लिया. लगभग दो हफ़्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से बच कर भाग निकली. झांसी से भागकर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिलीं.
तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया पर 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गई.
आज वीरता और शौर्य की उस प्रतिमूर्ति महारानी लक्ष्मीबाई जी को उनके पावन जन्म दिवस सुदर्शन परिवार उन्हें बारम्बार नमन , वंदन और अभिनन्दन करते हुए उनकी पावन जीवनी और गौरवमय इतिहास को संरक्षित रखते हुए उनकी गौरवगाथा को समय समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प लेता है.