लता मंगेशकर जी का एक अतिप्रसिद्ध गाना आपने कई बार सुना होगा जिसमें उन्होंने गाया है “खून से लथपथ काया, फिर भी भी बंदूक उठा और 10 – 10 को एक ने मारा, फिर गिर गए होश गंवा के ” वो गाना और वो लाइन आज के ही दिन सदा सदा के लिए अमरता प्राप्त करने वाले भारत के परमवीर मेजर शैतान सिंह जी के लिए बनी यही.
उनकी गौरव गाथा को भले ही वोट बैंक के लालच में अंधे कुछ लोगों ने भुला दिया हो लेकिन वो युद्ध और वो अंदाज़ आज भी चीनियों को याद है जब उन पर मेजर शैतान सिंह जी और उनके जांबाज़ 114 साथियों के रूप में बरसी थी साक्षात मौत. 18 नवंबर 1962 को चुशूल में मेजर शैतान सिंह जी और उनके 114 साथियों का अप्रतिम बलिदान इसका साक्षी है.
उत्तर में भारत के प्रहरी हिमालय की पर्वत शृंखलाएं सैकड़ों से लेकर हजारों मीटर तक ऊंची हैं. मेजर शैतान सिंह जी के नेतृत्व में 13वीं कुमाऊं की ‘सी’ कम्पनी के 114 जवान शून्य से 15 डिग्री कम की हड्डियां कंपा देने वाली ठंड में 17,800 फुट ऊंचे त्रिशूल पर्वत की ओट में 3,000 गज लम्बे और 2,000 गज चौड़े रजांगला दर्रे पर डटे थे.
वहां की कठिन स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चाय बनाने के लिए पानी को कई घंटे तक उबालना पड़ता था. भोजन सामग्री ठंड के कारण बिल्कुल ठोस हो जाती थी. तब आज की तरह आधुनिक ठंडरोधी टैंट भी नहीं होते थे. मेजर साहब का जन्म आज ही के दिन अर्थात 1 दिसम्बर 1924 को राजस्थान के जोधपुर में हुआ था.
ये वो समय था जब सत्ता का शीर्ष वर्ग चरखे के गुण गाने में व्यस्त था.. उसके हिसाब से चरखा चलाने से अंग्रेज भाग गए थे तो चीन की क्या औकात.. इसीलिए गांव गांव में लाउडस्पीकर लगा कर चरखे व बिना खड्ग बिना ढाल के गाने गाए जाते रहे .. ठीक उसी समय चीन ने कर दिया आक्रमण और सत्ता का वही वर्ग छिप गया सैनिको की ओट में जिनके हाथों में थी बंदूकें.
1962 युद्ध के दौरान लद्दाख के रेज़ांग-ला में भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों से जो लड़ाई लड़ी थी उसे ना केवल भारतीय फौज बल्कि चीन के साथ-साथ दुनिया भर की सेनाएं भी एक मिसाल के तौर पर देखती हैं और सीख लेना नहीं भूलती. चीन का तिब्बत पर हमला, फिर कब्जा और दलाई लामा के भागकर भारत में राजनैतिक शरण लेने के बाद से ही भारत और चीन के रिश्तों में बेहद खटास आ चुकी थी. ऐसे में चीन की लद्दाख में घुसपैठ और कई सीमावर्ती इलाकों में कब्जा करने के बाद भारतीय सेना ने भी इन इलाकों में अपनी फॉरवर्ड-पोस्ट बनानी शुरु कर दी थी.
भारत का मानना था कि चीन इन सीमावर्ती इलाकों में अपनी पोस्ट या फिर सड़क बनाकर इसलिए अपना अधिकारी जमा रही थी क्योंकि ये इलाके खाली पड़े रहते थे. सालों-साल से वहां आदमी तो क्या परिंदा भी पर नहीं मारता था, इसी का फायदा उठाया चीन ने. लद्दाख के चुशुल इलाके में करीब 16,000 फीट की उंचाई पर रेज़ांगला दर्रे के करीब भारतीय सेना ने अपनी एक पोस्ट तैयार की थी. इस पोस्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी कुमाऊं रेजीमेंट की एक कंपनी को जिसका नेतृत्व कर रहे थे मेजर शैतान सिंह (भाटी).
123 जवानों की इस कंपनी में अधिकतर हरियाणा के रेवाड़ी इलाके के अहीर (यादव) शामिल थे. चीनी सेना की बुरी नजर चुशुल पर लगी हुई थी. वो किसी भी हालत में चुशुल को अपने कब्जे में करना चाहते थे. जिसके मद्देनजर चीनी सैनिकों ने भी इस इलाके में डेरा डाल लिया था.इसी क्रम में जब अक्टूबर 1962 में लद्दाख से लेकर नेफा (अरुणाचल प्रदेश) तक भारतीय सैनिकों के पांव उखड़ गए थे और चीनी सेना भारत की सीमा में घुस आई थी, तब रेज़ांग-ला में ही एक मात्र ऐसी लड़ाई लड़ी गई थी जहां भारतीय सैनिक चीन के पीएलए पर भारी पड़ी थी.
17 नवंबर चीनी सेना ने रेज़ांग-ला में तैनात भारतीय सैनिकों पर जबरदस्त हमला बोल दिया. चीनी सैनिकों ने एक प्लान के तहत रेज़ांग-ला में तैनात सैनिकों को दो तरफ से घेर लिया, जिसके चलते भारतीय सैनिक अपने तोपों (आर्टिलेरी) का इस्तेमाल नहीं कर पाई. लेकिन .303 (थ्री-नॉट-थ्री) और ब्रैन-पिस्टल के जरिए भी कुमाऊं रेजीमेंट के ये 123 जवान चीनी सेना की तोप, मोर्टार और ऑटोमैटिक हथियारों जिनमें मशीन-गन भी शामिल थीं, मुकाबला कर रहे थे. इन जवानों ने अपनी बहादुरी से बड़ी तादाद में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. लेकिन चीनी सेना लगातार अपने सैनिकों की मदद के लिए रि-इनफोर्समेंट भेज रही थी.
मेजर शैतान सिंह जी खुद कंपनी की पांचों प्लाटून पर पहुंचकर अपने जवानों की हौसला-अफजाई कर रहे थे. इस बीच कुमाऊं कंपनी के लीडर मेजर शैतान सिंह गोलियां लगने से बुरी तरह जख्मी हो गए. दो जवान जब उन्हे उठाकर सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे तो चीनी सैनिकों ने उन्हे देख लिया. शैतान सिंह अपने जवानों की जान किसी भी कीमत पर जोखिम में नहीं डाल सकते थे.
उन्होनें खुद को सुरक्षित स्थान पर ले जाना से साफ मना कर दिया. जख्मी हालत में शैतान सिंह अपने जवानों के बीच ही बने रहे. वहीं पर अपनी बंदूक को हाथ में लिए वो अमरता को प्राप्त हो गए थे .. दो दिनो तक भारतीय सैनिक चीनी पीएलए को रोके रहे. 18 नवंबर को 123 में से 109 जवान जिनमें कंपनी कमांडर मेजर शैतान सिंह जी भी शामिल थे देश की रक्षा करते वीरगति को प्राप्त हो चुके थे. लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि भारतीय सैनिकों की गोलियां तक खत्म हो गईं. बावजूद इसके बचे हुए जवानों ने चीन के सामने घुटने नहीं टेकें.