हमारे देश में ऐसे अनेकों महान महापुरुषों ने जन्म लिया है, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गया है. हमारे देश में कई ऐसे लोग थे जिन्होंने इस देश में रह कर भी भारत के इतिहास से इन वीरों को मिटाने की कई कोशिशें की. इन लोगों ने उन सभी क्रांतिकारियों और महापुरुषों के नाम को छिपाने और सदा के लिए मिटाने की कोशिश की. उन लाखों महान क्रांतिकारियों में से एक थे क्रांतिवीर स्वतंत्रता सेनानी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी. वहीं, आज क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का जन्म 17 दिसंबर, 1890 को राजस्थान के रतनगढ़ में हुआ था. उनके पिता का नाम भीमराज जी तथा माता का नाम रिखीबाई जी था. बाल्यावस्था में ही हनुमान जी की माता रिखीबाई जी की मृत्यु हो गई. उसके पश्चात दादी मां रामकौर देवी जी ने ही हनुमान जी का पालन-पोषण किया.
कल्याण' मासिक पत्र के संपादक के रूप में पोद्दार जी का पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष स्थान है. 'कल्याण' के संपादक के रूप में हनुमान प्रसाद जी को विश्व भर के आध्यात्म प्रेमियों के बीच लोकप्रियता मिली. 'कल्याण' के संपादन के अलावा उनको गीता-प्रेस में दिए गए योगदान के लिए जाना जाता है. गीता-प्रेस के आजीवन ट्रस्टी रहे पोद्दार जी की गीता-प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयनका से प्रगाढ़ मित्रता थी.
जयदयाल गोयनका को गीता में गहरी रूचि थी, वे प्रतिदिन गीता का अध्ययन किया करते थे और विभिन्न स्थानों में घूम-घूम कर गीता का प्रचार भी किया करते थे. गीता को आमजन तक पहुंचाने के लिए शुद्ध पाठवाली पुस्तक की आवश्यकता थी जो उस समय उपलब्ध नहीं थी..गोयनका जी ने गीता की व्याख्या कर कलकत्ता के वणिक प्रेस से पांच हजार प्रतियां छपवायीं. जिसमें मुद्रण से संबंधित विभिन्न गलतियां थीं, अतः उन्होंने धार्मिक-आध्यात्मिक प्रकाशन हेतु सन 1923 में गीता-प्रेस की स्थापना की. गीता-प्रेस की स्थापना यद्यपि जयदयाल गोयनका ने की, किंतु संपादन की जिम्मेदारी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के पास ही थी. वे गीता-प्रेस के ट्रस्टी भी थे.
उस समय देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था. इनके पिता अपने कारोबार की वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादा जी के साथ असम में था. कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष जी, देशबंधु चितरंजन दास जी, पं झाबरमल शर्मा जी के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े. इसके बाद लोकमान्य तिलक जी और गोपालकृष्ण गोखले जी जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गांधी से हुई.
वीर सावरकर द्वारा लिखे गए 1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे विनायक दामोदर सावरकर जी से मिलने के लिए मुंबई चले आए. 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया. युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया. विक्रम संवत 1971 में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई.
भाईजी ने अपने जीवन काल में गीता प्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की. इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों. कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए. भाई जी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है.
आज क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की पुण्यतिथि पर सुदर्शन परिवार उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है और उनकी गौरव गाथा को समय-समय पर जनमानस के आगे लाते रहने का संकल्प भी दोहराता है.